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Friday 10 August 2018

रेखाचित्र

रेखाचित्र का अर्थ
 ‘रेखाचित्र’ शब्द अंग्रेजी के 'स्कैच' शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। जैसे ‘स्कैच’ में रेखाओं के माध्यम से किसी व्यक्ति या वस्तु का चित्र प्रस्तुत किया जाता है, ठीक वैसे ही शब्द रेखाओं के माध्यम से किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को उसके समग्र रूप में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। ये व्यक्तित्व प्रायः वे होते हैं जिनसे लेखक किसी न किसी रूप में प्रभावित रहा हो या जिनसे लेखक की घनिष्ठता अथवा समीपता हो।

रेखाचित्र कहानी से मिलता-जुलता साहित्य रूप है। यह नाम अंग्रेज़ी के 'स्केच' शब्द की नाप-तोल पर गढ़ा गया है। स्केच चित्रकला का अंग है। इसमें चित्रकार कुछ इनी-गिनी रेखाओं द्वारा किसी वस्तु-व्यक्ति या दृश्य को अंकित कर देता है-स्केच रेखाओं की बहुलता और रंगों की विविधता में अंकित कोई चित्र नहीं है, न वह एक फ़ोटो ही है, जिसमें नन्हीं से नन्हीं और साधारण से साधारण वस्तु भी खिंच आती है।

रेखाचित्र आधुनिक युग में विकसित एक गद्य विधा है जो अन्य आधुनिक विधा की तरह ही पश्चिम से आई है और अंग्रेजी के ‘स्केच’ के समानार्थी है। रंगविहीन रेखाओं के दायरे को घटाना-बढ़ाना, सूक्ष्म अन्तर्दर्शी कला-चेतना को मांजकर कलाकार जब अपनी आत्मा को रेखाओं की वृतों में घेरकर आकार देता है, वह रेखाचित्र के रूप में हमारे सामने आता है। साहित्यिक क्षेत्र में यही रेखाएं शब्दों में परिवर्तित हो जाती है। 

वैसे तो रेखाचित्र की कई परिभाषाएँ प्रस्तुत की गयी हैं, परन्तु सबसे सटीक और व्यापक परिभाषा डॉ. भगीरथ मिश्र की लगती है जिनके अनुसार –
 “संपर्क में आये किसी विलक्षण व्यक्ति अथवा संवेदनाओं को जगानेवाली सामान्य विशेषताओं से युक्त किसी प्रतिनिधि चरित्र के मर्मस्पर्शी स्वरुप को, देखी-सुनी या संकलित घटनाओं की पृष्ठभूमि में इस प्रकार उभारकर रखना कि उसका हमारे हृदय पर एक निश्चित प्रभाव अंकित हो जाए रेखाचित्र या शब्दचित्र कहलाता है।”

जिस प्रकार चित्रकार चित्र बनाने के लिए आड़ी-तिरछी रेखाओं का प्रयोग करता है, उसी प्रकार रेखाचित्र लिखने वाला चित्र-शब्दों द्वारा जीवन की विविध घटनाओं, व्यक्तियों और दृश्य का ऐसा सजीव चित्र उपस्थित करता है कि पाठक के सम्मुख वह व्यक्ति, स्थान, वातावरण या प्रसंग साकार हो उठता है। गद्य में लिखे गए इसी चित्र को रेखाचित्र कहते हैं। रेखाचित्रकार अपने मन पर छाई हुई स्मृति रेखाओं और विगत अनुभवों को कला की तूलिका से स्वानुभूति के रंग में रंगकर सजीव शब्द-चित्र का रूप देता है।

प्रकाशचन्द्र गुप्त ने अपने रेखाचित्रों के सम्बन्ध में लिखा है –
 “मैं शब्दों की रेखाओं से अपने अनुभव के चित्र उतारने का प्रयास कर रहा था और निरंतर सोचता था कि मैं इन रेखाओं को तूलिका या पेंसिल से खींच सकता तो कितना अच्छा होता।”

इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि शब्दचित्र छोटे, चलते और जीवंत होते हैं। हिंदी साहित्य कोष के अनुसार – “रेखाचित्र किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या भाव का कम से कम शब्दों में मर्मस्पर्शी भावपूर्ण एवं सजीव अंकन है।”

रेखाचित्र कहानी से मिलता-जुलता साहित्य रूप है। यह नामअंग्रेज़ी के 'स्केच' शब्द की नाप-तोल पर गढ़ा गया है। स्केच चित्रकला का अंग है। इसमें चित्रकार कुछ इनी-गिनी रेखाओं द्वारा किसी वस्तु-व्यक्ति या दृश्य को अंकित कर देता है-स्केच रेखाओं की बहुलता और रंगों की विविधता में अंकित कोई चित्र नहीं है, न वह एक फ़ोटो ही है, जिसमें नन्हीं से नन्हीं और साधारण से साधारण वस्तु भी खिंच आती है।

साहित्य में रेखाचित्र
साहित्य में जिसे रेखाचित्र कहते हैं, उसमें भी कम से कम शब्दों में कलात्मक ढंग से किसी वस्तु, व्यक्ति या दृश्य का अंकन किया जाता है। इसमें साधन शब्द है, रेखाएँ नहीं। इसीलिए इसे शब्दचित्र भी कहते हैं। कहीं-कहीं इसका अंग्रेज़ी नाम 'स्केच' भी व्यवहृत होता है।

रेखाचित्र का स्वरूप
रेखाचित्र किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या भाव का कम से कम शब्दों में मर्म-स्पर्शी, भावपूर्ण एवं सजीव अंकन है। कहानी से इसका बहुत अधिक साम्य है- दोनों में क्षण, घटना या भाव विशेष पर ध्यान रहता है, दोनों की रूपरेखा संक्षिप्त रहती है और दोनों में कथाकार के नैरेशन और पात्रों के संलाप का प्रसंगानुसार उपयोग किया जाता है। इन विधाओं के साम्य के कारण अनेक कहानियों को भी रेखाचित्र कह दिया जाता है और इसके ठीक विपरीत अनेक रेखाचित्रों को कहानी की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। कहीं-कहीं लगता है, कहानी और रेखाचित्र के बीच विभाजन रेखा खींचना सरल नहीं है। उदाहरण के लिए रायकृष्णदास लिखित 'अन्त:पुर का आरम्भ' कहानी है, पर वह आदिम मनुष्य की अन्त:वृत्ति पर आधारित 'रेखाचित्र' भी है। रामवृक्ष बेनीपुरी की पुस्तक 'माटी की मूरतें' में संकलित 'रज़िया', 'बलदेव सिंह', 'देव' आदि रेखाचित्र कहानियाँ भी हैं। श्रीमती महादेवी वर्मा लिखित 'रामा', 'घीसा' आदि रेखाचित्र भी कहानी कह जाते हैं। कहानी और रेखाचित्र में साम्य है अवश्य, पर जैसा कि 'शिप्ले' के 'विश्व साहित्य कोश' में कहा गया है, रेखाचित्र में कहानी की गहराई का अभाव रहता है। दूसरी बात यह भी है कि कहानी में किसी न किसी मात्रा में कथात्मकता अपेक्षित रहती है, पर रेखाचित्र में नहीं।

आत्मकथा और संस्मरण से भिन्न
व्यक्तियों के जीवन पर आधारित रेखाचित्र लिखे जाते हैं, पर रेखाचित्र जीवनचरित नहीं है। जीवनचरित के लिए यथातथ्यता एवं वस्तुनिष्ठता अनिवार्य है। इसमें कल्पना के लिए अवकाश नहीं रहता, लेकिन रेखाचित्र साहित्यिक कृति है- लेखक अपनी भावना एवं कल्पना की तूलिका से ही विभिन्न चित्र अंकित करता है। जीवनचरित में समग्रता का भी आग्रह रहता है, इसमें सामान्य एवं महत्त्वपूर्ण सब प्रकार की घटनाओं के चित्रण का प्रयत्न रहता है, लेकिन रेखा चित्रकार गिनी-चुनी रेखाओं, गिनी-चुनी महत्त्वपूर्ण घटनाओं का ही उपयोग करता है। इन बातों से यह भी स्पष्ट है कि रेखाचित्र आत्मकथा और संस्मरण से भी भिन्न अस्तित्व रखता है।

रेखाचित्र की विशेषता
रेखाचित्र की विशेषता विस्तार में नहीं, तीव्रता में होती है। रेखाचित्र पूर्ण चित्र नहीं है-वह व्यक्ति, वस्तु, घटना आदि का एक निश्चित विवरण की न्यूनता के साथ-साथ तीव्र संवेदनशीलता वर्तमान रहती है। इसीलिए रेखाचित्रांकन का सबसे महत्त्वपूर्ण उपकरण है, उस दृष्टिबिन्दु का निर्धारण, जहाँ से लेखक अपने वर्ण्य विषय का अवलोकन कर उसका अंकन करता है। इस दृष्टि से व्यंग्य चित्र और रेखाचित्र की कलाएँ बहुत समान हैं। दोनों में दृष्टि की सूक्ष्मता तथा कम से कम स्थान में अधिक से अधिक अभिव्यक्त करने की तत्परता परिलक्षित होती है। रेखाचित्र के लिए संकेत सामर्थ्य भी बहुत आवश्यक है- रेखाचित्रकार शब्दों और वाक्यों से परे भी बहुत कुछ कहने की क्षमता रखता है। रेखाचित्र के लिए उपयुक्त विषय का चुनाव भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसकी विषय वस्तु ऐसी होती है, जिसे विस्तृत वर्णन और रंगों की अपेक्षा न हो और जो कुछ ही रेखाओं के संघात से चमक उठे।

रेखाचित्र एवं संस्मरण का सम्बन्ध
पाश्चात्य साहित्य विशेषकर अंग्रेजी साहित्य के स्केचों से प्रभावित रेखाचित्र वस्तुतः कहानी और निबंध के मध्य झूलती विधा है। हिंदी में निबंध तथा कहानी पर लिखी गयी आलोचना पुस्तकों में रेखाचित्र को कहानी या निबंध-कला की सहायक शैली मान लिया गया है अथवा कहानी और निबंध की रचना-सीमाओं को फैलाकर रेखाचित्र को उन्हीं के अंतर्गत समाविष्ट करने का प्रयास किया गया है। रेखाचित्र में कहानी से अधिक मार्मिकता, निबंध से अधिक मौलिकता एवं रोचकता होती है। इसमें कहानी का कौतूहल है तो निबंध की गहराई भी है। वस्तुतः रेखाचित्र विभिन्न विधाओं की विशेषताओं का विचित्र समुच्चय है।

यशपाल के अनुसार –
“रेखाचित्र कहानी की कला से प्रेरणा पाकर उत्पन्न हुई कला की नव विकसित स्वतंत्र शाखा है।”

संस्मरण रेखाचित्र के अत्यधिक निकट है। दोनों ही संवेदनशील स्मृतियों का प्रत्यक्षीकरण है जिसके सूत्र किसी साधारण अथवा विशिष्ट व्यक्ति से जुड़े होते हैं। रेखाचित्र और संस्मरण के ऊपरी खोल एक से प्रतीत होते हैं, किन्तु एक ही सतह से जुड़ी इन विधाओं में भी थोड़ा अंतर है। संस्मरण संस्मरणकार का अनुभूत यथार्थ होता है जिसका सम्बन्ध अतीत से होता है। उसमें कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं होता। वह विवेच्य व्यक्ति, घटना या प्रसंग की यथातथ्यता को बनाए रखकर उनमें संचरित भीतरी संवेदना को पकड़ता है। रेखाचित्र संस्मरण के इन गुणों का अनुपालन नहीं करता। वह तो चित्रकला से उत्प्रेरित एक साहित्यिक विधा है। जिस प्रकार चित्रकार रेखाओं में अपने विवेच्य विषय को पूर्ण और सूक्ष्म आकार न देकर केवल आकार का आभास प्रदान करता है, ठीक उसी प्रकार साहित्यिक रेखाचित्रकार शब्दों में अपने विवेच्य विषय के स्वरुप का आकारात्मक आभास देता है। इस तरह रेखाचित्र और संस्मरण में स्पष्ट अंतर है।

कहानी अथवा निबंध से कहीं अधिक रेखाचित्र और संस्मरण के बीच की निकटता पर विद्वानों ने अपनी राय व्यक्त की है। दरअसल संस्मरण और रेखाचित्र दोनों एक दूसरे के इतना निकट है कि कभी-कभी तो दोनों को अलग करना कठिन हो जाता है। संस्मरण संवेदनशील स्मृतियों का प्रत्यक्षीकरण है जिसके सूत्र किसी साधारण अथवा विशिष्ट व्यक्ति से जुड़े होते हैं। रेखाचित्र के केंद्र में भी यही संवेदनशील स्मृति है, जो शब्दचित्र के रूप में वर्णित होता है। किन्तु इतना साम्य होने पर भी ये दोनों दो भिन्न विधाएँ हैं।


Monday 27 March 2017

संपादन

संपादन एक व्यापक शब्द है। अकसर हम संपादन का अर्थ समाचारों के संपादन से लेते हैं। पर संपादन अपने संपूर्ण अर्थों में पत्रकारिता के उस काम का सम्मिलित नाम है‚ जिसकी लंबी प्रक्रिया के बाद कोई समाचार‚ लेख‚ फीचर‚ साक्षात्कार आदि प्रकाशन और प्रसारण की स्थिति में पहुंचते हैं। संपादन कला को ठीक से समझने के लिए जरूरी है कि यह जान लिया जाए कि यह क्या नहीं है:

1. लिखित कॉपी को काट-छांट कर छोटा कर देना

2. लिखित कॉपी की भाषा बदल देना

3. लिखित कॉपी को संपूर्णतः रूपांतरित कर देना

4. लिखित कॉपी को हेडिंग व सबहेडिंग से सुसज्जित कर देना

5. लिखित कॉपी को अलंकृत कर देना

6. लिखित कॉपी को सरल बना देना या उसे कोई खास स्वरूप दे देना

7. लिखित कॉपी में तथ्यों को ठीक करना या तथ्यों का मूल्यांकन कर उन्हें घटा-बढ़ा देना

8. लिखित कॉपी को पाठकों के बौद्धिक या समझ के स्तर के अनुरूप बना देना

अब इस बिंदु पर यह बता देना जरूरी है कि किसी भी कॉपी के संपादन में यह सब किया जाता है। पर हर कॉपी में यह सब करने की गुंजाइश अलग होती है। उपरोक्त काम हर कॉपी में एक समान रूप से नहीं किया जा सकता‚ यदि ऐसा किया गया तो वह एक गलत संपादन का उदाहरण होगा।

संपादन के निम्नलिखित चरण माने जा सकते हैं –

1. सामग्री चयन व सामग्री विश्लेषण

2. सामग्री का भाषा संपादन

3. प्रस्तुतिकरण

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संपादन के महत्वपूर्ण चरण

1.  समाचार आकर्षक होना चाहिए।
2.  भाषा सहज और सरल हो।
3.  समाचार का आकार बहुत बड़ा और उबाऊ नहीं होना चाहिए।
4. समाचार लिखते समय आम बोल-चाल की भाषा के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
5. शीर्षक विषय के अनुरूप होना चाहिए।
6.  समाचार में प्रारंभ से अंत तक तारतम्यता और रोचकता होनी चाहिए।
7.  कम शब्दों में समाचार का ज्यादा से ज्यादा विवरण होना चाहिए।
8.  रेडियो बुलेटिन के प्रत्येक समाचार में श्रोताओं के लिए सम्पूर्ण जानकारी होना
 चाहिये ।
9.   संभव होने पर समाचार स्रोत का उल्लेख होना चाहिए।
10.  समाचार छोटे वाक्यों में लिखा जाना चाहिए।
11.  रेडियो के सभी श्रोता पढ़े लिखे नहीं होते, इस बात को ध्यान में रखकर भाषा और शब्दों का चयन किया जाना चाहिए।
12. रेडियो श्रव्य माध्यम है अतः समाचार की प्रकृति ऐसी होनी चाहिए कि एक ही बार सुनने पर समझ आ जाए।
13. समाचार में तात्कालिकता होना अत्यावश्यक है। पुराना समाचार होने पर भी इसे अपडेट कर प्रसारित करना चाहिए।
14. समाचार लिखते समय व्याकरण और चिह्नो पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, ताकि समाचार वाचक आसानी से पढ़ सके।
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समाचार संपादन के तत्व

संपादन की दृष्टि से किसी समाचार के तीन प्रमुख भाग होते हैं-
1. शीर्षक- किसी भी समाचार का शीर्षक उस समाचार की आत्मा होती है। शीर्षक के माध्यम से न केवल श्रोता किसी समाचार को पढ़ने के लिए प्रेरित होता है, अपितु शीर्षकों के द्वारा वह समाचार की विषय-वस्तु को भी समझ लेता है। शीर्षक का विस्तार समाचार के महत्व को दर्शाता है। एक अच्छे शीर्षक में निम्नांकित गुण पाए जाते हैं-
1.  शीर्षक बोलता हुआ हो। उसके पढ़ने से समाचार की विषय-वस्तु का आभास  हो जाए। 
2.  शीर्षक तीक्ष्ण एवं सुस्पष्ट हो। उसमें श्रोताओं को आकर्षित करने की क्षमता हो।
3.  शीर्षक वर्तमान काल में लिखा गया हो। वर्तमान काल मे लिखे गए शीर्षक घटना की ताजगी के द्योतक होते हैं।
4. शीर्षक में यदि आवश्यकता हो तो सिंगल-इनवर्टेड कॉमा का प्रयोग करना चाहिए। डबल इनवर्टेड कॉमा अधिक स्थान घेरते हैं।
5.  अंग्रेजी अखबारों में लिखे जाने वाले शीर्षकों के पहले ‘ए’ ‘एन’, ‘दी’ आदि भाग का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। यही नियम हिन्दी में लिखे शीर्षकों पर भी लागू होता है। 
6. शीर्षक को अधिक स्पष्टता और आकर्षण प्रदान करने के लिए सम्पादक या   उप-सम्पादक का सामान्य ज्ञान ही अन्तिम टूल या निर्णायक है। 
7.  शीर्षक में यदि किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख किया जाना आवश्यक हो तो  उसे एक ही पंक्ति में लिखा जाए। नाम को तोड़कर दो पंक्तियों में लिखने से  शीर्षक का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है।
8.  शीर्षक कभी भी कर्मवाच्य में नहीं लिखा जाना चाहिए।   

2. आमुख- आमुख लिखते समय ‘पाँच डब्ल्यू’ तथा एक-एच के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। अर्थात् आमुख में समाचार से संबंधित छह प्रश्न-Who, When, Where, What और How का अंतर पाठक को मिल जाना चाहिए। किन्तु वर्तमान में इस सिद्धान्त का अक्षरशः पालन नहीं हो रहा है। आज छोटे-से-छोटे आमुख लिखने की प्रवृत्ति तेजी पकड़ रही है। फलस्वरूप इतने प्रश्नों का उत्तर एक छोटे आमुख में दे सकना सम्भव नहीं है। एक आदर्श आमुख में 20 से 25 शब्द होना चाहिए।

3. समाचार का ढाँचा- समाचार के ढाँचे में महत्वपूर्ण तथ्यों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करना चाहिए। सामान्यतः कम से कम 150 शब्दों तथा अधिकतम 400 शब्दों में लिखा जाना चाहिए। श्रोताओं को अधिक लम्बे समाचार आकर्षित नहीं करते हैं।

 समाचार सम्पादन में समाचारों की निम्नांकित बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है-
  1. समाचार किसी कानून का उल्लंघन तो नहीं करता है। 
  2.  समाचार नीति के अनुरूप हो।
  3.  समाचार तथ्याधारित हो।
  4.  समाचार को स्थान तथा उसके महत्व के अनुरूप विस्तार देना।
  5.  समाचार की भाषा पुष्ट एवं प्रभावी है या नहीं। यदि भाषा नहीं है तो उसे   पुष्ट बनाएँ।
  6.  समाचार में आवश्यक सुधार करें अथवा उसको पुर्नलेखन के लिए वापस   कर दें।
  7.  समाचार का स्वरूप सनसनीखेज न हो।
  8.  अनावश्यक अथवा अस्पस्ट शब्दों को समाचार से हटा दें।
  9.  ऐसे समाचारों को ड्राप कर दिया जाए, जिनमें न्यूज वैल्यू कम हो और उनका उद्देश्य किसी का प्रचार मात्र हो। 
 10. समाचार की भाषा सरल और सुबोध हो। 
 11. समाचार की भाषा व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध न हो।
 12. वाक्यों में आवश्यकतानुसार विराम, अद्र्धविराम आदि संकेतों का समुचित प्रयोग हो।
 13.  समाचार की भाषा मेंे एकरूपता होना चाहिए। 
 14.    समाचार के महत्व के अनुसार बुलेटिन में उसको स्थान प्रदान करना।

समाचार-सम्पादक की आवश्यकताएँ
एक अच्छे सम्पादक अथवा उप-सम्पादक के लिए आवश्यक होता है कि वह समाचार जगत्में अपने ज्ञान-वृद्धि के लिए निम्नांकित पुस्तकों को अपने संग्रहालय में अवश्य रखें-
1. सामान्य ज्ञान की पुस्तकें।
2. एटलस।
3. शब्दकोश।
4. भारतीय संविधान।
5. प्रेस विधियाँ।
6. इनसाइक्लोपीडिया।
7. मन्त्रियों की सूची।
8. सांसदों एवं विधायकों की सूची।
9. प्रशासन व पुलिस अधिकारियों की सूची।
10. ज्वलन्त समस्याओं सम्बन्धी अभिलेख।
11. भारतीय दण्ड संहिता (आई.पी.सी.) पुस्तक।
12. दिवंगत नेताओं तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से सम्बन्धित अभिलेख।
13. महत्वपूर्ण व्यक्तियों व अधिकारियों के नाम, पते व फोन नम्बर।
14. पत्रकारिता सम्बन्धी नई तकनीकी पुस्तकें।
15. उच्चारित शब्द

लेखन, पत्रकारिता और शैली पुस्तिका

लेखन, पत्रकारिता और शैली पुस्तिका

पीके खुराना

शैली पुस्तिका ऐसे नियमों और प्रयोगों का एक संकलन होती है जिसमें उन शब्दों की चर्चा होती है जिनके एक से ज्यादा रूप प्रचलन में होते हैं या हो सकते हैं। जैसे हिंदी में बरतन लिखा जाता है और बर्तन भी। अमरीका लिखा जाता है और अमेरिका भी। ऐसे दोहरे-तिहरे रूपों की समस्या सिर्फ भाषा और वर्तनी में ही नहीं होती। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय नामों के उच्चारण, माप-तौल की प्रणालियों, विराम चिन्हों के प्रयोगों और अक्षरों के आकार-प्रकार में भी होती है। शैली पुस्तिका में इनके मानक और मान्य रूप दिए जाते हैं। ऐसी प्रविष्टियां सौ-पचास नहीं होतीं, बल्कि हजारों में भी हो सकती हैं। लेखन या प्रकाशन में वे सारे प्रयोग, जिनकी वजह से भ्रम हो सकता है, उनके बारे में स्पष्ट निर्देश शैली पुस्तिका में दिये जाते हैं। शैली पुस्तिका का उद्देश्य होता है आपके लेखन, संपादन और प्रकाशन में एकरूपता लाना। यह एक संदर्भ ग्रंथ है जिसके आधार पर किसी पत्र अथवा पत्रिका की भाषा का मानकीकरण (स्टैंडर्डाइज़ेशन) किया जाता है। अंग्रेज़ी में इसे स्टाइल बुक या स्टाइल मैन्युअल कहा जाता है।

किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह सारी चीजें याद रखे। विदेशों में हर लेखक, संपादक और प्रकाशन समूह अपने लिए स्टाइल बुक अवश्य रखते हैं। वहां बिना शैली पुस्तिका के अखबार और पत्रिकाएं निकाली ही नहीं जातीं। भारत में अब तक हमारा संपादन और प्रकाशन इतना वैज्ञानिक और व्यवस्थित नहीं रहा है। लेकिन अब नये युग की शुरुआत हो रही है। अनके संस्थाएं अपनी-अपनी शैली पुस्तिकाएं विकसित कर रही हैं।

शैली पुस्तिका किसी भाषा में तब जरूरी हो जाती है जब वह भाषा जनसंचार का साधन बनती है। एक ऐसी भाषा के लिए जो अनेक समुदायों से बने एक बहुत बड़े समाज के बीच संचार माध्यम है, एकरूपता का अनुशासन और सटीक प्रयोग का बंधन आवश्यक है ताकि नए शब्दों और उनके अर्थों को लेकर कोई भ्रम न रहे। अखबारों के लिए तो यह और भी आवश्यक है क्योंकि वह अपने पाठकों के एक बहुत बड़े वर्ग तक पहुंचता है। इसलिए उसके प्रस्तुत करने के ढंग और शब्दों के प्रयोगों में एकरूपता होनी ही चाहिए। अखबार के दफ्तर में बहुत बड़ी तादाद में लोग काम करते हैं। उनमें से कई एक ही क्षेत्र और विषय पर काम करते हैं। अगर उनके काम में एकरूपता नहीं हुई तो वहां अराजकता होगी।

हिंदी एक जीवंत भाषा है जिसने न सिर्फ अपने में विभिन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक धाराओं को संजो रखा है, बल्कि उसका संपर्क देश-विदेश की दूसरी अनेक भाषाओं से भी बना हुआ है। भाषा के सही-सही प्रयोग के लिए तथा उन प्रयोगों में एकरूपता बनाये रखने के लिए अंग्रेज़ी, उर्दू, अरबी और संस्कृत तथा अन्य भाषाओं के शब्दों के हिज्जों के बारे में स्पष्ट नियमों का उल्लेख आवश्यक है।

भाषा को विद्वान भाषा-शास्त्री नहीं बनाते, भाषा बोलने वाले लोग बनाते हैं। वही शब्दों को अर्थ देते हैं और उन्हीं के लगातार बरतने से नए मुहावरे बनते हैं। व्याकरण वाले भाषा की बहती नदी के किनारे तटबंध बांध सकते हैं, कहीं पुल बना सकते हैं, लेकिन वे उसी का नियम बना सकते हैं जो चलन एवं बहाव में है, और जो लगातार बहता है वह लगातार बदलता भी रहता है। शब्दों को ढालने और घिसने का काम कानून से नहीं, प्रचलन से ही होता है।

कुछ वर्ष पूर्व तक पत्रकारिता में संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रचलन था। इस मामले में हिंदी अखबारों में पंजाब केसरी का अपना अलख रुख रहा है। पंजाब केसरी में शुरू से ही सदैव बोलचाल वाली आसान हिंदी का प्रयोग होता रहा है। दैनिक भास्कर ने इससे भी एक कदम आगे बढक़र हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेज़ी शब्दों का समावेश किया। शेष अखबारों ने शुरू में तो इसे भाषा का भ्रष्टाचार कहा और माना पर समय के साथ-साथ वे बदले और अन्य अखबारों ने भी इसे अपना लिया। आज आपको हिंदी के अखबारों में अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार मिलेगी, कभी-कभार तो अनावश्यक भी, पर अब यह चलता है।

पूरे हिंदी इलाके में भी एक ही भाषा नहीं बोली जाती। अवधी के मूल संस्कार वालों की हिंदी वही नहीं है जो मगही के बोलने वालों की है। अंतर सिर्फ उच्चारण का ही नहीं, शब्दों के प्रयोग, मुहावरों और शब्दों का भी है। पंजाबी के संस्कार वाले की हिंदी, पटना के लोगों को समझ ही न आए, ऐसा तो नहीं है, लेकिन वह उन्हें अटपटी जरूर लगती है, और ऐसे कई शब्द हैं जो उन्हें समझ नहीं आते। इसी विविधता के कारण एक अखबार में एक मानक भाषा का प्रयोग नितांत आवश्यक है।

यह संतोष की बात है कि हिंदी पत्रकारिता अब भाषा और साहित्य के दुराग्रहों से निकल कर उन सब क्षेत्रों में फैलने और उन्हें समेटने की कोशिश कर रही है जिनमें हिंदी बोलने वालों की रुचि है। पत्रकारिता में शब्दों, वाक्यांशों, मुहावरों और लोकोक्तियों के एक-से प्रयोग से अखबार का अपना एक अलग चरित्र बनता है और पाठक को भी उसमें सुविधा रहती है। जो अखबार अपनी शैली पुस्तिका विकसित करता है और लगातार नई जरूरतों के अनुसार उसमें संशोधन और परिवर्तन करता है, वह दरअसल अपने को एक चरित्र, एक पहचान देने की कोशिश करता है।

क्या होती है शैली पुस्तिका?
शैली पुस्तिका के नियम पांच या दस नहीं होते। शोधकर्ताओं की एक टीम सालों काम करती है। वे देखते हैं कि संपादन करने या कापी फाइल करने वालों के सामने क्या-क्या परेशानियां आती हैं, मशीन पर क्या-क्या संभव है, पढऩे वाले के सामने क्या समस्याएं होती हैं, व्याकरण में क्या नियम हैं, प्रचलन में क्या है। इन तमाम बातों को ध्यान में रखकर वे एक ऐसी किताब तैयार करते हैं जो प्रकाशन में लगे व्यक्तियों के लिए एक संविधान की तरह हो।

अपने अखबार में हम ‘एक-सा’ लिखेंगे या ‘एक सा’, यानी, हाइफन लगाएंगे या नहीं, ‘डेमोक्रेसी’लिखेंगे, ‘डैमोक्रेसी’लिखेंगे या फिर ‘डिमाक्रेसी’लिखेंगे। कुछ लोग शैली पुस्तिका के नाम से बिदक सकते हैं। वे समझते हैं कि यह व्याकरण की किताब है। वे इसे नियमों की ऐसी किताब मान सकते हैं जो उनके लेखन पर अंकुश लगा देगी और उन्हें एक खास ढांचे में लिखने को बाध्य करेगी। परंतु यह अंकुश न होकर एक बेहद मददगार दोस्त की तरह काम करती है और काम के समय शब्दों के प्रयोग में अनावश्यक भ्रम को दूर करती है।

शैली पुस्तिका, संपादकों, उपसंपादकों के लिए अत्यंत आवश्यक दस्तावेज है। मान लीजिए, आप पीटीआई की एक खबर लेना चाहते हैं। तो खबर के साथ पीटीआई का नाम आप लिखेंगे या नहीं। लिखेंगे तो कहां? शुरू में, अंत में, डेटलाइन के बाद, खबर के ऊपर। लिखेंगे तो कितना? पूरा नाम, सिर्फ एजेंसी, या कुछ और? शैली पुस्तिका में इन सबका एक रूप निश्चित कर दिया जाता है। इसी तरह यह भी बताया जाता है कि अपने अखबार में आप ‘अमरीका’लिखेंगे या ‘अमेरिका’, ताकि यह न हो कि ऊपर के पैरे में अमरीका लिखा जाए और नीचे के पैरे में अमेरिका। भाषा में अन्य भी कई उलझनें सामने आती हैं। नई या नयी? बैसाख या वैशाख? दोनों रूप प्रचलित हैं। यहां सही-गलत का सवाल नहीं है, शैली पुस्तिका के माध्यम से यह तय किया जाता है कि आप अपने अखबार में कौन सा एक रूप प्रयोग करेंगे।

शैली पुस्तिका का उद्देश्य आपको भाषा शास्त्र या साहित्य का विद्वान बनाना नहीं होता। इसका काम भाषा से संबंधित जटिल समस्याओं का हल ढूंढऩा भी नहीं होता। इसका एकमात्र उद्देश्य होता है आपको इन उलझनों से बचाना, आपके लिए एक सीधा-सादा रास्ता बनाना ताकि आप अपनी सामग्री सुविधापूर्वक प्रयोग कर सकें, आपके प्रकाशन में एकरूपता हो और उसकी एक अलग पहचान बन सके।

शैली पुस्तिका मात्र एक ढांचा है जिसमें बताया जाता है कि भाषा की अशुद्धियों से ले कर पृष्ठ विन्यास (पेज ले-आउट) तक के बारे में आप क्या-क्या चीजें तय करें और उन्हें किस तरह रखें कि जरूरत पडऩे पर उन्हें आसानी से ढूंढ़ा जा सके।

इस अध्याय में हम आम प्रयोग में आने वाले कुछ शब्दों के प्रयोग के बारे में होने वाले भ्रम का समाधान कर रहे हैं। परंतु यदि आपके अखबार की अपनी कोई अलग स्टाइल बुक है तो हो सकता है कि इनमें से कुछ शब्दों के बारे में वहां भिन्न नियम हों। उस स्थिति में आपको अपने अखबार की स्टाइल बुक के नियम ही अपनाने चाहिएं। अण्डा या अंडा, चञ्चल या चंचल, सम्पादक या संपादक; दोनों में से कौन सा रूप प्रयुक्त होगा, यह आपकी स्टाइल बुक तय करेगी।

कुछ सामान्य नियम
हिंदी के किसी शब्द में जब ‘आई’प्रत्यय (सफिक्स) लगता है तो उसके पहले आने वाले द्विरुक्त (दो बार आने वाले) व्यंजन को एक कर दिया जाता है। जैसे, खट्टा से खटाई (खट्टाई नहीं)। इसी तरह, यदि उस शब्द के प्रथम व्यंजन में दीर्घ स्वर की मात्रा हो, तो वह ह्रस्व में बदल जाती है। जैसे, मीठा से मिठाई, ढीठ से ढिठाई, आदि।

यह लिखना गलत है कि ‘अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए।’जाने की इजाजत दी जाती है, अनुमति दी जाती है। आज्ञा में आदेश की ध्वनि है, अनुमति की नहीं। आज्ञा पालन करने वाला आज्ञा मांग कर नहीं लेता।

उपाधि : उपाधि वितरित नहीं की जाती, दी जाती है, प्रदान की जाती है। उपाधि, सम्मान और पुरस्कार में फर्क है। पद्म विभूषण सम्मान है, उपाधि या पुरस्कार नहीं। पद्म विभूषण से सम्मानित किया जाता है, पद्म विभूषण प्रदान नहीं किया जाता। डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की जाती है और डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित (जब यह मानद उपाधि होती है) भी किया जाता है।

अंतरराष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय / अंतर्देशीय : अंतरराष्ट्रीय का अर्थ है दो या दो से अधिक राष्ट्रों के बीच। यह शब्द अंतर और राष्ट्रीय के योग से बना है। अंतर का अर्थ होता है ‘के बीच’, ‘के मध्य’। अंतर्राष्ट्रीय शब्द अंत: और राष्ट्रीय के योग से बना है। अंत: का विसर्ग र से मिल कर र्र बन जाता है। अंत: का अर्थ है ‘के भीतर’, ‘के अंदर’। अंतर्राष्ट्रीय का अर्थ है राष्ट्र के भीतर। इसी तरह, अंतर्देशीय का अर्थ है देश के भीतर। यह अंग्रेज़ी के इनलैंड का मान्य हिंदी पर्याय है।

जब अंग्रेज़ी अभिव्यक्ति और हिंदी अभिव्यक्ति के ढंग में फर्क नहीं किया जाता तब भी गलतियां होती हैं। जैसे ‘आई एम टु गो टु सी माई फादर’ का अनुवाद हुआ ‘मुझे मेरे पिता को देखने जाना है’। लेकिन हिंदी में यहां ‘मेरे’का प्रयोग नहीं होता। सही वाक्य होगा, ‘मुझे अपने पिता को देखने जाना है।’

पहले उत्तर भारत के बड़े हिस्से में चैक, प्रैस, सैक्टर आदि लिखा जाता था, अब ज्य़ादातर अखबारों ने इनकी जगह चेक, प्रेस, सेक्टर आदि लिखना आरंभ कर दिया है, अत: ऐसे शब्दों के यही रूप मान्य हो गये हैं।

हिंदी में प्रचलित वे सभी शब्द जो अंग्रेज़ी के ‘ए’ अक्षर से शुरू होते हैं और जिनका उच्चारण ‘ऐ’से होता है, देवनागरी में ‘ए’से लिखे जाते हैं। जैसे बोला जाता है ‘ऐक्ट’, लेकिन लिखा जाता है ‘एक्ट’। इसी तरह ऐडमिरल को एडमिरल, ऐडमिनिस्ट्रेटर को एडमिनिस्ट्रेटर, ऐडिशनल को एडिशनल आदि ही लिखा जाता है।

‘कृपया’ लिखा जाएगा, ‘कृप्या’ नहीं। ‘कुआं’ सही है, ‘कुंआ’ नहीं।

अंग्रेज़ी उच्चारण के प्रभाव से बहुत से लोग शहरों व प्रदेशों के नाम का उच्चारण अंग्रेज़ी की तरह से करते हैं, जबकि लिखित में हिंदी के पुराने रूप ही सही माने जाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘केरल’सही प्रयोग है, ‘केरला’या ‘केराला’नहीं। इसी तरह ‘कुरुक्षेत्र’सही रूप है, ‘कुरुक्षेत्रा’ नहीं।

गाइड सही रूप है, गाईड नहीं। गाउन सही है, गाऊन नहीं। क्लब सही है, कल्ब नहीं। ‘हँस’और ‘हंस’ अलग अर्थों वाले दो अलग-अलग शब्द हैं, पर मशीन की अड़चन के कारण इन्हें एक ही तरह से, यानी हंस, लिख दिया जाता है। हिंदी में दुकान और दूकान दोनों प्रचलित हैं, ज्यादातर अखबार दुकान का प्रयोग करते हैं।

आतंक में त के बाद अनुनासिक की ध्वनि है। लोग बिंदु लगाने में अक्सर भूल कर जाते हैं। यदि हम जान लें कि अन्त की जगह अंत, अण्डा की जगह अंडा, चञ्चल की जगह चंचल, और सम्पादक के लिए संपादक लिखा जा सकता है तो इस भूल से बच जायेंगे।
अंग्रेज़ी के जिन शब्दों के अंत में इ या उ हमेशा ह्रस्व होता है, लेकिन हिंदी में उसे हमेशा दीर्घ लिखते हैं। जैसे, अंग्रेज़ी का आइ, हाइ आदि हिंदी में आई, हाई आदि लिखा जाता है।

उर्दू शब्दों की वर्तनी
उर्दू और हिंदी के अपने शब्द लगभग समान हैं लेकिन उर्दू में अरबी और फारसी से जो शब्द आए हैं, उनका प्रयोग जब हिंदी में होता है तो हिज्जे और प्रयोग को लेकर कई बार उलझनें पैदा होती हैं। अरबी, फारसी और उर्दू के ऐसे शब्दों के प्रयोग के कुछ नियम यहां दिये जा रहे हैं।

उर्दू से नुक्ते वाले क, ख, ग, ज और फ की ध्वनियां हिंदी में आई हैं। इन ध्वनियों के लिए नुक्ते का प्रयोग किया जाता था, लेकिन अब सरलीकरण के चलते तथा हिंदी वालों में उर्दू-फारसी की जानकारी न होने के कारण नुक्ते का चलन लगभग बंद हो गया है और इनकी जगह हिंदी के बिना नुक्ते वाले यानी साधारण ढंग से लिखे गए क, ख, ग, ज और फ से ही काम चलाया जाता है।

अरबी-फारसी के जिन शब्दों के अंत में विसर्ग आता है वे हिंदी में अकार में बदल जाते हैं, जैसे, उम्द: का उम्दा, आदि।

फारसी के बहुत से शब्दों ‘जहाँ’, ‘जाँ’, ‘जमीं’आदि में अनुनासिकत्व का प्रयोग होता है। हिंदी में इनकी जगह जहान, जान, जमीन आदि रूप प्रचलित हैं। इन्हें इसी रूप में लिखा जाना चाहिए।

Monday 28 November 2016

समाचार संपादन

समाचार संपादन के तत्व

संपादन की दृष्टि से किसी समाचार के तीन प्रमुख भाग होते हैं-
1. शीर्षक- किसी भी समाचार का शीर्षक उस समाचार की आत्मा होती है। शीर्षक के माध्यम से न केवल श्रोता किसी समाचार को पढ़ने के लिए प्रेरित होता है, अपितु शीर्षकों के द्वारा वह समाचार की विषय-वस्तु को भी समझ लेता है। शीर्षक का विस्तार समाचार के महत्व को दर्शाता है। एक अच्छे शीर्षक में निम्नांकित गुण पाए जाते हैं-
1.  शीर्षक बोलता हुआ हो। उसके पढ़ने से समाचार की विषय-वस्तु का आभास  हो जाए।
2.  शीर्षक तीक्ष्ण एवं सुस्पष्ट हो। उसमें श्रोताओं को आकर्षित करने की क्षमता हो।
3.  शीर्षक वर्तमान काल में लिखा गया हो। वर्तमान काल मे लिखे गए शीर्षक घटना की ताजगी के द्योतक होते हैं।
4. शीर्षक में यदि आवश्यकता हो तो सिंगल-इनवर्टेड कॉमा का प्रयोग करना चाहिए। डबल इनवर्टेड कॉमा अधिक स्थान घेरते हैं।
5.  अंग्रेजी अखबारों में लिखे जाने वाले शीर्षकों के पहले ‘ए’ ‘एन’, ‘दी’ आदि भाग का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। यही नियम हिन्दी में लिखे शीर्षकों पर भी लागू होता है।
6. शीर्षक को अधिक स्पष्टता और आकर्षण प्रदान करने के लिए सम्पादक या   उप-सम्पादक का सामान्य ज्ञान ही अन्तिम टूल या निर्णायक है।
7.  शीर्षक में यदि किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख किया जाना आवश्यक हो तो  उसे एक ही पंक्ति में लिखा जाए। नाम को तोड़कर दो पंक्तियों में लिखने से  शीर्षक का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है।
8.  शीर्षक कभी भी कर्मवाच्य में नहीं लिखा जाना चाहिए।
 
2. आमुख- आमुख लिखते समय ‘पाँच डब्ल्यू’ तथा एक-एच के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। अर्थात् आमुख में समाचार से संबंधित छह प्रश्न-Who, When, Where, What और How का अंतर पाठक को मिल जाना चाहिए। किन्तु वर्तमान में इस सिद्धान्त का अक्षरशः पालन नहीं हो रहा है। आज छोटे-से-छोटे आमुख लिखने की प्रवृत्ति तेजी पकड़ रही है। फलस्वरूप इतने प्रश्नों का उत्तर एक छोटे आमुख में दे सकना सम्भव नहीं है। एक आदर्श आमुख में 20 से 25 शब्द होना चाहिए।
 
3. समाचार का ढाँचा- समाचार के ढाँचे में महत्वपूर्ण तथ्यों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करना चाहिए। सामान्यतः कम से कम 150 शब्दों तथा अधिकतम 400 शब्दों में लिखा जाना चाहिए। श्रोताओं को अधिक लम्बे समाचार आकर्षित नहीं करते हैं।

 समाचार सम्पादन में समाचारों की निम्नांकित बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है-
  1. समाचार किसी कानून का उल्लंघन तो नहीं करता है।
  2.  समाचार नीति के अनुरूप हो।
  3.  समाचार तथ्याधारित हो।
  4.  समाचार को स्थान तथा उसके महत्व के अनुरूप विस्तार देना।
  5.  समाचार की भाषा पुष्ट एवं प्रभावी है या नहीं। यदि भाषा नहीं है तो उसे   पुष्ट बनाएँ।
  6.  समाचार में आवश्यक सुधार करें अथवा उसको पुर्नलेखन के लिए वापस   कर दें।
  7.  समाचार का स्वरूप सनसनीखेज न हो।
  8.  अनावश्यक अथवा अस्पस्ट शब्दों को समाचार से हटा दें।
  9.  ऐसे समाचारों को ड्राप कर दिया जाए, जिनमें न्यूज वैल्यू कम हो और उनका उद्देश्य किसी का प्रचार मात्र हो।
 10. समाचार की भाषा सरल और सुबोध हो।
 11. समाचार की भाषा व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध न हो।
 12. वाक्यों में आवश्यकतानुसार विराम, अद्र्धविराम आदि संकेतों का समुचित प्रयोग हो।
 13.  समाचार की भाषा में एकरूपता होना चाहिए।
 14.    समाचार के महत्व के अनुसार बुलेटिन में उसको स्थान प्रदान करना।

समाचार-सम्पादक की आवश्यकताएँ
एक अच्छे सम्पादक अथवा उप-सम्पादक के लिए आवश्यक होता है कि वह समाचार जगत में अपने ज्ञान-वृद्धि के लिए निम्नांकित पुस्तकों को अपने संग्रहालय में अवश्य रखें-
1. सामान्य ज्ञान की पुस्तकें।
2. एटलस।
3. शब्दकोश।
4. भारतीय संविधान।
5. प्रेस विधियाँ।
6. इनसाइक्लोपीडिया।
7. मन्त्रियों की सूची।
8. सांसदों एवं विधायकों की सूची।
9. प्रशासन व पुलिस अधिकारियों की सूची।
10. ज्वलन्त समस्याओं सम्बन्धी अभिलेख।
11. भारतीय दण्ड संहिता (आई.पी.सी.) पुस्तक।
12. दिवंगत नेताओं तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से सम्बन्धित अभिलेख।
13. महत्वपूर्ण व्यक्तियों व अधिकारियों के नाम, पते व फोन नम्बर।
14. पत्रकारिता सम्बन्धी नई तकनीकी पुस्तकें।
15. उच्चारित शब्द

Wednesday 23 November 2016

फोटोग्राफी के गुर

फोटोग्राफी के गुर

फोटोग्राफी या छायाचित्रण संचार का ऐसा एकमात्र माध्यम है जिसमें भाषा की आवश्यकता नहीं होती है। यह बिना शाब्दिक भाषा के अपनी बात पहुंचाने की कला है। इसलिए शायद ठीक ही कहा जाता है ‘‘ए पिक्चर वर्थ ए थाउजेंड वर्ड्स’’ यानी एक फोटो दस हजार शब्दों के बराबर होती है। फोटोग्राफी एक कला है जिसमें फोटो खींचने वाले व्यक्ति में दृश्यात्मक योग्यता यानी दृष्टिकोण व फोटो खींचने की कला के साथ ही तकनीकी ज्ञान भी होना चाहिए। और इस कला को वही समझ सकता है, जिसे मूकभाषा भी आती हो।

फोटोग्राफी की प्रक्रियाः
मनुष्य की संचार यात्रा शब्दों से पूर्व इशारों, चिन्हों और चित्रों से शुरू हुई है। छायाचित्र कोयला, चाक पैंसिल या रंगों के माध्यम से भी बनाए जा सकते हैं, लेकिन जब इन्हें कैमरा नाम के यंत्र की मदद से कागज या डिजिटल माध्यम पर उतारा जाता है, तो इसे फोटोग्राफी कहा जाता है। फोटोग्राफी की प्रक्रिया में मूलतः किसी छवि को प्रकाश की क्रिया द्वारा संवेदनशील सामग्री पर उतारा जाता है। इस प्रक्रिया में सामान्यतया चश्मे या दूरबीन के जरिए पास या दूर की वस्तुओं की छवि को देखे जाने के गुण का लाभ ही लिया जाता है, और एक कदम आगे बढ़ते हुए कैमरे के जरिए भौतिक वस्तुओं से निकलने वाले विकिरण को संवेदनशील माध्यम (जैसे फोटोग्राफी की फिल्म, इलेक्ट्रानिक सेंसर आदि) के ऊपर रिकार्ड करके स्थिर या चलायमान छवि या तस्वीर बना ली जाती है, ऐसी तस्वीरें ही छायाचित्र या फोटोग्राफ कहलाते हैं। इस प्रकार फोटोग्राफी लैंस द्वारा कैमरे में किसी वस्तु की छवि का निर्माण करने की व्यवस्थित तकनीकी प्रक्रिया है।

कैमरे का चयनः 
फोटोग्राफी एक बहुत ही अच्छे व लाभदायक व्यवसाय के रूप में साबित हो सकता है। फोटोग्राफी करना निजी पसंद का कार्य है इसलिए जिस चीज का आपको शौक हो उसके अनुरूप कैमरे का चयन करना चाहिये। अगर घर और कोई छोटे मोटे स्टूडियो में काम करना हो तो सामान्य डिजिटल कैमरे से भी काम चलाया जा सकता है, लेकिन अगर वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी या फैशन फोटोग्राफी जैसी प्रोफेशनल फोटोग्राफी करनी हो तो एसएलआर या डीएसएलआर कैमरे इस्तेमाल करने पड़ते हैं। डिजिटल कैमरे मोबाइल फोनों के साथ में तथा चार-पांच हजार से लेकर 15-20 हजार तक में आ जाते हैं, जबकि प्रोफेशनल कैमरे करीब 25 हजार से शुरू होते हैं, और ऊपर की दो-चार लाख तथा अपरिमित सीमा भी है। कैमरे के चयन में सामान्यतया नौसिखिया फोटोग्राफर मेगापिक्सल और जूम की क्षमता को देखते हैं, लेकिन जान लें कि मेगापिक्सल का फर्क केवल बड़ी या छोटी फोटो बनाने में पड़ता है। बहुत अधिक जूम का लाभ भी सामान्यतया नहीं मिल पाता, क्योंकि कैमरे में एक सीमा से अधिक जूम की क्षमता होने के बावजूद फोटो हिल जाती है। कैमरा खरीदने में अधिक आईएसओ, अधिक व कम अपर्चर तथा शटर स्पीड तथा दोनों को मैनुअल मोड में अलग-अलग समायोजित करने की क्षमता तथा सामान्य कैमरे में लगी फ्लैश या अतिरिक्त फ्लैश के कैमरे लेने का निर्णय किया जा सकता है।

लगातार बढ़ रहा है क्रेजः
सामान्यतया फोटोग्राफी यादों को संजोने का एक माध्यम है, लेकिन रचनात्मकता और कल्पनाशीलता के प्रयोग से यह खुद को व्यक्त करने और रोजगार का एक सशक्त और बेहतर साधन भी बन सकता है। अपनी भावनाओं को चित्रित करने के लिए शौकिया फोटोग्राफी करते हुए भी आगे चलकर इस शौक को करियर बनाया जा सकता है। तकनीकी की तरक्की और संचार के माध्यमों में हुई बेहतरी के साथ फोटोग्राफी का भी विकास हुआ है। सस्ते मोबाइल में भी कैमरे उपलब्ध हो जाने के बाद हर व्यक्ति फोटोग्राफर की भूमिका निभाने लगा है। छोटे-बड़े आयोजनों, फैशन शो व मीडिया सहित हर जगह फोटोग्राफी कार्यक्रम का एक अभिन्न अंग बन गया है, मीडिया में तो कई बार फोटोग्राफरों की पत्रकारों से अधिक पूछ होती है, लोग पत्रकारों से पहले फोटोग्राफरों को ही घटना की पहले सूचना देते हैं। समाचार में फोटो छप जाए, और खबर भले फोटो कैप्सन रूप में ही, लोग संतुष्ट रहते हैं, लेकिन यदि खबर बड़ी भी छप जाए और फोटो ना छपे तो समाचार पसंद नहीं आता। मनुष्य के इसी शौक का परिणाम है कि इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता का क्रेज भी प्रिंट पत्रकारिता के सापेक्ष अधिक बढ़ रहा है।

फोटोग्राफी कला व विज्ञान दोनोंः 
फोटोग्राफी सबसे पहले आंखों से शुरू होती है, तथा आंख, दिल व दिमाग का बेहतर प्रयोग कर कैमरे से की जाती है, एक सफल फोटोग्राफर बनने के लिए वास्तविक खूबसूरती की समझ होने के साथ ही तकनीकी ज्ञान भी होना चाहिए। आपकी आँखें किसी भी वस्तु की तस्वीर विजुलाइज कर सकती हों कि वह अमुख वस्तु फोटो में कैसी दिखाई देगी। तस्वीर के रंग और प्रकाश की समझ में अंतर करने की क्षमता होनी भी जरूरी होती है। इसलिए फोटोग्राफी एक कला है।
वहीं, डिजिटल कैमरे आने के साथ फोटोग्राफी में नए आयाम जुड़ गए हैं। आज हर कोई फोटो खींचता है और खुद ही एडिट कर के उपयोग कर लेता है। लेकिन इसके बावजूद पेशेवर कार्यों के लिए एसएलआर व डीएसएलआर कैमरे इस्तेमाल किये जाते है जिन्हें सीखने के लिए काफी मेहनत करनी पड सकती है। इसलिए फोटोग्राफी विज्ञान भी है, जिसमें प्रशिक्षण लेकर और लगातार अभ्यास कर ही पारंगत हुआ जा सकता है। देशभर में कई ऐसे संस्थान हैं जो फोटोग्राफी में डिग्री, डिप्लोमा या सर्टिफिकेट कोर्स करवाते हैं। लेकिन यह भी मानना होगा कि बेहतर फोटोग्राफी सीखने के लिए किताबी ज्ञान कम और प्रयोगात्मक ज्ञान ज्यादा होना चाहिए। शैक्षिक योग्यता के साथ-साथ आपकी कल्पना शक्ति भी मजबूत होनी चाहिए। लेकिन यह भी मानना होगा कि यह पेशा वास्तव में कठिन मेहनत मांगता है। किसी एक फोटो के लिए एवरेस्ट और सैकड़ों मीटर ऊंची मीनारों या टावरों पर चढ़ने, कई-कई दिनों तक बीहड़ बीरान जंगलों में पेड़ या मचान पर बैठे रहने और मीलों पैदल भटकने की स्थितियां भी आ सकती हैं, इसलिए यह भी कहा जाता है कि फोटो और खबरें हाथों से नहीं वरन पैरों से भी लिखी या खींची जाती हैं।

फोटोग्राफी की तकनीकः
सामान्यतया फोटोग्राफी किसी भी कैमरे से ऑटो मोड में शुरू की जा सकती है, लेकिन अनुभव बढ़ने के साथ मैनुअल मोड में बेहतर चित्र प्राप्त किए जा सकते हैं। मैनुअल फोटोग्राफी में तीन चीजों को समझना बहुत महत्वपूर्ण होता है- शटर स्पीड, अपर्चर और आईएसओ।

शटर स्पीडः
शटर स्पीड यह व्यक्त करने का मापक है कि कैमरे को क्लिक करने के दौरान कैमरे का शटर की कैमरे की स्पीड कितनी देर के लिए खुलता है। इसे हम मैनुअली नियंत्रित कर सकते हैं। शटर स्पीड को सेकेंड में मापा जाता है और ‘1/सेकेंड’ में यानी 1/500, 1/1000 आदि में व्यक्त किया जाता है। इसे पता चलता हे कि शटर किसी चित्र को लेने के लिए एक सेकेंड के 500वें या 1000वें हिस्से के लिए खुलेगा। जैसे यदि हम एक सैकेंड के एक हजारवें हिस्से में कोई फोटो लेते हैं तो वो उस फोटो में आये उडते हुए जानवर या तेजी से भागते विमान आदि के चित्र को अच्छे से ले सकता है, या फिर गिरती हुई पानी की बूंदो को फ्रीज कर सकता है। पर अगर इस सैटिंग को बढ़ाकर एक सेकेंड, दो सेकेंड या पांच सैकेंड कर दिया जाए तो शटर इतने सेकेंड के लिए खुलेगा, और शटर के इतनी देर तक खुले रहने से उस दृश्य के लिए भरपूर रोशनी मिलेगी, और फलस्वरूप फोटो अधिक अच्छी आएगी, अलबत्ता कैमरे को उतनी देर के लिए स्थिर रखना होगा। ट्राइपौड का इस्तेमाल करना जरूरी होगा। शटर स्पीड घटाकर यानी शटर को काफी देर खोलकर अंधेरे में शहर की रोशनियों या चांद-तारों, बहते हुए झरने, पानी, बारिश की बूंदों व बर्फ के गिरने, उड़ते पक्षियों, तेजी से दौडती कारों व वाहन आदि चलायमान वस्तुओं की तस्वीरें भी कैद की जा सकती हैं।
ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि शटर स्पीड जितनी बढ़ाई जाती है, इसके उलट उतनी ही कम रोशनी मिलती है। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा 1/125 की शटर स्पीड 1/250 के मुकाबले अधिक होती है।

अपर्चरः

शटर स्पीड और अपर्चर में समझने के लिहाज से मामूली परंतु बड़ा अंतर है। वस्तुतः शटर स्पीड और अपर्चर दोनों चित्र लेने के लिए लेंस के भीतर जाने वाले प्रकाश का ही मापक होते हैं, और दोनों शटर से ही संबंधित होते हैं। परंतु अपर्चर में शटर स्पीड से अलग यह फर्क है कि अपर्चर शटर के खुलने-फैलने को प्रकट करता है, यानी शटर का कितना हिस्सा चित्र लेने के लिए खुलेगा। इसे ‘एफ/संख्या’ में प्रकट किया जाता है। एफ/1.2 का अर्थ होगा कि शटर अपने क्षेत्रफल का 1.2वां हिस्सा और एफ/5.6 में 5.6वां हिस्सा खुलेगा। साफ है कि अपर्चर जितना कम होगा, शटर उतना अधिक खुलेगा, फलस्वरूप उतनी ही अधिक रोशनी चित्र के लिए लेंस को उपलब्ध होगी। कम अपर्चर होने पर चित्र के मुख्य विषय के इतर बैकग्राउंड ब्लर आती है। बेहतर फोटो के लिए अपर्चर सामान्यतया एफ/5.6 रखा जाता है।

फोटो की गहराई (डेप्थ ऑफ फील्ड-डीओएफ):

फोटो की गहराई या डेप्थ ऑफ फील्ड फोटोग्राफी (डीओएफ) के क्षेत्र में एक ऐसा मानक है, जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं, पर यह है बड़ा प्रभावी। किसी भी फोटो की गुणवत्ता, या तीखेपन (शार्पनेस) में इसका बड़ा प्रभाव पड़ता है। डीओएफ एक तरह से किसी फोटो के फोकस में होने या बेहतर होने का मापक है। अधिक डीओएफ का अर्थ है कि फोटो का अधिकांश हिस्सा फोकस में है, चाहे उसमें दिखने वाला दृश्य का कोई हिस्सा कैमरे से करीब हो अथवा दूर, वहीं इसके उलट कम डीओएफ का अर्थ है फोटो के कम हिस्से का फोकस में होना। ऐसा सामान्यतया होता है, कभी पास तो कभी दूर का दृश्य ही फोकस में होता है, जैसा पहले एफ/22 अपर्चर में खींचे गए फूल और झील की फोटो में नजर आ रहा है, यह अधिक डीओएफ का उदाहरण है। जबकि दूसरा एफ/2.8 अपर्चर में खींचे गए फूल का धुंधली बैकग्राउंड का फोटो कम डीओएफ का उदाहरण है।

इस प्रकार से अपर्चर का डीओएफ से सीधा व गहरा नाता होता है। बड़ा अपर्चर (एफ के आगे कम संख्या वाला) फोटो डीओएफ को घटाता है, और छोटा अपर्चर (एफ के आगे छोटी संख्या) फोटो के डीओएफ को बढ़ाता है। इसे यदि हम यह इस तरह याद रख लें कि एफ/22, एफ/2.8 के मुकाबले छोटा अपर्चर होता है, तो याद करने में आसानी होगी कि यदि एफ के आगे संख्या बड़ी होगी तो डीओएफ बड़ा और संख्या छोटी होगी तो डीओएफ छोटा होगा।
इस प्रकार हम याद रख सकते हैं कि लैंडस्केप या नेचर फोटोग्राफी में बड़े डीओएफ यानी छोटे अपर्चर और मैक्रो और पोर्ट्रेट फोटोग्राफी में छोटे डीओएफ या बड़े अपर्चर का प्रयोग किया जाता है। ऐसा रखने से पूरा प्रकृति का चित्र बेहतर फोकस होगा, और पोर्ट्रेट में सामने की विषयवस्तु अच्छी फोकस होगी और पीछे की बैकग्राउंड ब्लर आएगी, और सुंदर लगेगी।

आईएसओः

आईएसओ का मतलब है कि कोई कैमरा रोशनी के प्रति कितना संवेदनशील है। किसी कैमरे की जितनी अधिक आईएसओ क्षमता होगी, उससे फोटो खींचने के लिए उतनी की कम रोशनी की जरूरत होगी, यानी वह उतनी कम रोशनी में भी फोटो खींचने में समर्थ होगा। अधिक आईएसओ पर कमरे के भीतर चल रही किसी खेल गतिविधि की गत्यात्मक फोटो भी खींची जा सकती है, अलबत्ता इसके लिए कैमरे को स्थिर रखने, ट्राइपौड का इस्तेमाल करने की जरूरत पड़ती है। कम व अधिक आईएसओ का फर्क इस चित्र में समझा जा सकता है।

लेकिन इसके साथ ही यह भी समझना पड़ेगा कि यदि आप शटर स्पीड को एक स्टेप बढ़ा कर उदाहरणार्थ 1/125 से घटाकर 1/250 कर रहे हैं तो इसका मतलब होगा कि आपके लैंस को आधी रोशनी ही प्राप्त होगी, और मौजूदा अपर्चर की सेटिंग पर आपका चित्र गहरा नजर आएगा। इस स्थिति को ठीक करने के लिए यानी लेंस को अधिक रोशनी देने के लिए आपको अपर्चर बढ़ाना यानी शटर को पहले के मुकाबले एक स्टेप अधिक खोलना होगा। इसके अलावा आईएसओ को भी अधिक रोशनी प्राप्त करने के लिए एक स्टेप बढ़ाने की जरूरत पड़ सकती है।

बेहतर तीखेपन (शार्पनेस) की फोटो खींचने के 10 महत्वपूर्ण घटकः


कैमरे को अधिक मजबूती से पकड़ें, ध्यान रखें कैमरा हिले नहीं। संभव हो तो ट्राइपॉड का प्रयोग करें। खासकर अधिक जूम, कम शटर स्पीड, गतियुक्त एवं कम रोशनी में या रात्रि में फोटो खींचने के लिए ट्राइपौड का प्रयोग जरूर करना चाहिए।
शटर स्पीड का फोटो के तीखेपन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। शटर स्पीड जितनी अधिक होगी, उतना कैमरे के हिलने का प्रभाव नहीं पड़ेगा। वहीं इसके उलट शटर स्पीड जितनी कम होगी, उतना ही कैमरा अधिक हिलेगा, और फोटो का तीखापन प्रभावित होगा। लेंस की फोकस दूरी (फोकल लेंथ) से अधिक ‘हर (एक/ (बट्टे)’ वाली शटर स्पीड पर ही फोटो खींचने की कोशिश करनी चाहिए। यानी यदि कैमरे की फोकल लेंथ 50 मिमी है तो 1/50 से अधिक यानी 1/60, 70 आदि शटर स्पीड पर ही फोटो खींचनी चाहिए। यह भी याद रखें कि अधिक शटर स्पीड पर फोटो खींचने के लिए आपको क्षतिपूर्ति के लिए अधिक अपर्चर यानी कम डीओएफ की फोटो ही खींचनी चाहिए।
फोटो खींचने के लिए सही अपर्चर का प्रयोग करें। कम शटर स्पीड के लिए छोटे अपर्चर का प्रयोग करें।
कम रोशनी में अधिक आईएसओ का प्रयोग करने की कोशिश करें। ऐसा करने से आप तेज शटर स्पीड और छोटे अपर्चर का प्रयोग कर पाएंगे। लेकिन यदि संभव हो यानी रोशनी अच्छी उपलब्ध हो तो कम आईएसओ के प्रयोग से बेहतर तीखी फोटो खींची जा सकती है।
बेहतर लैंस, बेहतर कैमरे का प्रयोग करें। आईएस लैंस और डीएसएलआर कैमरे बेहतर हो सकते हैं।
दृश्य को बेहतर तरीके से फोकस करें। फोटो खींचने से पहले देख लें कि कौन सा हिस्सा फोकस हो रहा है।
लैंस साफ होना चाहिए। कैमरे को बेहद सावधानी के साथ रखें व प्रयोग करें।


इनके अलावा फोटो की विषयवस्तु के लिए एंगल यानी दृष्टिकोण और जूम यानी दूर की विषयवस्तु को पास लाकर फोटो खींचना तथा फ्लैश का प्रयोग करना या ना करना भी फोटोग्राफी में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

फोटोग्राफी में कॅरियर की संभावनाएंः 
बहरहाल, फोटोग्राफी और खासकर डिजिटल फोटोग्राफी की मांग लगातार बढ़ती जा रही है, और यह एक विशेषज्ञता वाला कार्य भी बन गया है। फोटो जर्नलिस्ट, फैशन फोटोग्राफर, वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर, माइक्रो फोटोग्राफी, नेचर फोटोग्राफर, पोर्ट्रेट फोटोग्राफी, फिल्म फोटोग्राफी इंडस्ट्रियल फोटोग्राफर, प्रोडक्ट फोटोग्राफी, ट्रेवल एंड टूरिज्म फोटोग्राफी, एडिटोरियल फोटोग्राफी व ग्लैमर फोटोग्राफी आदि न जाने कितने विशेषज्ञता के क्षेत्र हैं, जो व्यक्ति के अंदर छुपी कला और रचनात्मकता की अभिव्यक्ति का जरिया बनते है, साथ ही बेहतर आय व व्यवसाय भी बन रहे हैं। अगर आपमें अपनी रचनात्मकता के दम पर कुछ अलग करने की क्षमता और जुनून हो तो इस करियर में धन और प्रसिद्धि की कोई कमी नहीं है।

प्रेस फोटोग्राफर- फोटो हमेशा से ही प्रेस के लिए अचूक हथियार रहा है। प्रेस फोटोग्राफर को फोटो जर्नलिस्ट के नाम से भी जाना जाता है। प्रेस फोटोग्राफर लोकल व राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों, चैनलों और एजेंसियों के लिए फोटो उपलब्ध कराते हैं। इनका क्षेत्र विविध होता है। इनका दिमाग भी पत्रकार की भाँति ही तेज व शातिर होता है। कम समय में अधिक से अधिक तस्वीरें कैद करना इनकी काबिलियत होती है। एक सफल प्रेस फोटोग्राफर बनने के लिए आपको खबर की अच्छी समझ, फोटो शीर्षक लिखने की कला और हर परिस्थिति में फोटो बनाने की कला आनी चाहिए।

फीचर फोटोग्राफर- किसी कहानी को तस्वीरों के माध्यम से प्रदर्शित करना फीचर फोटोग्राफी होती है। इस क्षेत्र में फोटोग्राफर को विषय के बारे में पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। फीचर फोटोग्राफी में फोटोग्राफर तस्वीरों के माध्यम से विषय की पूरी कहानी बता देता है। इनका काम और विषय बदलता रहता है। फीचर फोटोग्राफी के क्षेत्र हैं- वन्य जीवन, खेल, यात्रा वृत्तांत, पर्यावरण इत्यादि। फीचर फोटोग्राफर किसी रिपोर्टर के साथ भी काम कर सकते हैं और स्वतंत्र होकर भी काम कर सकते हैं।

एडिटोरियल फोटोग्राफर- इनका काम सामान्यतया मैगजीन और पीरियोडिकल के लिए फोटो बनाना होता है। ज्यादातर एडिटोरियल फोटोग्राफर स्वतंत्र रूप से काम करते हैं। एडिटोरियल फोटोग्राफर आर्टिकल या रिपोर्ट के विषय पर फोटो बनाते हैं। इनका क्षेत्र रिपोर्ट या आर्टिकल के अनुसार बदलता रहता है।

कमर्शियल या इंडस्ट्रियल फोटोग्राफर- इनका कार्य कंपनी की विवरणिका, रिपोर्ट व विज्ञापन के लिए कारखानों, मशीनों व कलपुर्जों की तस्वीरें बनाना है। कमर्शियल फोटोग्राफर किसी फर्म या कंपनी के लिए स्थायी होता है। इनका मुख्य उद्देश्य बाजार में कंपनी के उत्पाद व उसकी सेवाओं को बेहतर दिखाना होता है।

पोर्ट्रेट या वेडिंग फोटोग्राफर- यह फोटोग्राफर स्टूडियो में काम करते हैं और समूह या व्यक्ति विशेष की फोटो लेने में निपुण होते हैं। पोर्ट्रेट के विषय कुछ भी हो सकते हैं, जैसे पालतू जानवरों तस्वीर, बच्चे, परिवार, शादी, घरेलू कार्यक्रम और खेल इत्यादि। आज कल पोर्ट्रेट फोटोग्राफर की माँग लगातार बढ़ रही है। सामान्यतया प्रसिद्ध हस्तियां, सिने कलाकार अपने लिए निजी तौर पर फोटोग्राफरों को साथ रखते हैं।

विज्ञापन फोटोग्राफर- यह विज्ञापन एजेंसी, स्टूडियो या फ्रीलांस से संबंधित होते हैं। ज्यादातर विज्ञापन फोटोग्राफर कैटलॉग के लिए काम करते हैं जबकि कुछ स्टूडियो मेल ऑर्डर के लिए काम करते हैं। उपरोक्त सभी में विज्ञापन फोटोग्राफर का काम सबसे ज्यादा चुनौती भरा होता है।

फैशन और ग्लैमर फोटोग्राफर- देश में फैशन और ग्लैमर फोटोग्राफी का कॅरियर तेजी से उभर रहा है। क्रिएटिव और आमदनी दोनों रूपों में यह क्षेत्र सबसे बेहतर है। फैशन डिजाइनर के लिए अत्यधिक संभावनाएं है जहाँ वे अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा सकते हैं। विज्ञापन एजेंसी और फैशन स्टूडियो में कुशल फोटोग्राफर की हमेशा आवश्यकता रहती है साधारणतया फैशन फोटोग्राफर फैशन हाउस, डिजाइनर, फैशन जर्नल और समाचार पत्रों के लिए तथा मॉडलों, फिल्मी अभिनेत्रियों के पोर्टफोलियो तैयार करने जैसे अनेक आकर्षक कार्य करते हैं।

फाइन आर्ट्स फोटोग्राफर- फोटोग्राफी के क्षेत्र में इनका काम सबसे संजीदा व क्लिष्ट है। एक सफल फाइन आर्ट्स फोटोग्राफर के लिए आर्टिस्टिक व क्रिएटिव योग्यता अत्यावश्यक होती है। इनकी तस्वीरें फाइन आर्ट के रूप में भी बिकती हैं।

डिजिटल फोटोग्राफी- यह फोटोग्राफी डिजिटल कैमरे से की जाती है। इस माध्यम से तस्वीरें डिस्क, फ्लापी या कम्प्यूटर से ली जाती है। डिजिटल फोटोग्राफी से तस्वीर में किसी भी प्रकार का परिवर्तन किया जा सकता है। तस्वीर लेने का यह सबसे सुलभ, तेज और सस्ता साधन है। मीडिया में डिजिटल फोटोग्राफी का प्रयोग सबसे ज्यादा हो रहा है। इसका एकमात्र कारण ज्यादा से ज्यादा तस्वीरें एक स्टोरेज डिवाइस में एकत्र कर उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पलभर में भेज देना है।

नेचर और वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी- फोटोग्राफी के इस क्षेत्र में जानवरों, पक्षियों, जीव जंतुओं और लैंडस्केप की तस्वीरें ली जाती हैं। इस क्षेत्र में दुर्लभ जीव जंतुओं की तस्वीर बनाने वाले फोटोग्राफर की माँग हमेशा बनी रहती है। एक नेचर फोटोग्राफर ज्यादातर कैलेंडर, कवर, रिसर्च इत्यादि के लिए काम करता है। नेचर फोटोग्राफर के लिए रोमांटिक सनसेट, फूल, पेड़, झीलें, झरना इत्यादि जैसे कई आकर्षक विषय हैं।

फोरेंसिक फोटोग्राफी- किसी भी क्राइम घटना की जाँच करने के लिए और उसकी बेहतर पड़ताल करने के लिए घटनास्थल की हर एंगल से तस्वीरों की आवश्यकता पड़ती है। इन तस्वीरों की मदद से पुलिस घटना के कारणों का पता लगाती है जिससे अपराधी को खोजने में आसानी होती है। फोरेंसिक फोटोग्राफी से वारदात की वास्तविक स्थिति व अंजाम देने की दूरी का पता भी लगाया जा सकता है। एक कुशल फोरेंसिक फोटोग्राफर अन्वेषण ब्यूरो, पुलिस डिपार्टमेंट, लीगल सिस्टम या किसी भी प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी के लिए काम कर सकता है।                                                                                                                      
इसके अलावा भी खेल, अंतरिक्ष, फिल्म, यात्रा, ललित कला तथा मॉडलिंग सहित अनेक अन्य क्षेत्रों में भी फोटोग्राफी की अनेक संभावनाएं हैं। दुनिया में जितनी भी विविधताएं हैं सभी फोटोग्राफी के विषय हैं। कब, क्या और कहां फोटोग्राफी का विषय बन जाए, कहा नहीं जा सकता, इसलिए फोटोग्राफी का कार्यक्षेत्र भी किसी सीमा में बांधकर नहीं रखा जा सकता है। यह संभावनाएं कौशल और चुनौतियों में छिपी हुई हैं, जिसे होनहार तथा चुनौतियों का सामना करने वाले फोटोग्राफर ही खोज सकते हैं।

फोटोग्राफी का इतिहास :
सर्वप्रथम 1839 में फ्रांसीसी वैज्ञानिक लुईस जेकस तथा मेंडे डाग्युरे ने फोटो तत्व को खोजने का दावा किया था। फ्रांसीसी वैज्ञानिक आर्गो ने 9 जनवरी 1839 को फ्रेंच अकादमी ऑफ साइंस के लिए एक रिपोर्ट तैयार की। फ्रांस सरकार ने यह "डाग्युरे टाइप प्रोसेस" रिपोर्ट खरीदकर उसे आम लोगों के लिए 19 अगस्त 1939 को फ्री घोषित किया और इस आविष्कार को ‘विश्व को मुफ्त’ मुहैया कराते हुए इसका पेटेंट खरीदा था। यही कारण है कि 19 अगस्त को विश्व फोटोग्राफी दिवस मनाया जाता है। हालांकि इससे पूर्व 1826 में नाइसफोर ने हेलियोग्राफी के तौर पर पहले ज्ञात स्थायी इमेज को कैद किया था। ब्रिटिश वैज्ञानिक विलियम हेनरी फॉक्सटेल बोट ने नेगेटिव-पॉजीटिव प्रोसेस ढूँढ लिया था। 1834 में टेल बॉट ने लाइट सेंसेटिव पेपर का आविष्कार किया जिससे खींचे चित्र को स्थायी रूप में रखने की सुविधा प्राप्त हुई।

1839 में ही वैज्ञानिक सर जॉन एफ डब्ल्यू हश्रेल ने पहली बार 'फोटोग्राफी' शब्द का इस्तेमाल किया था. यह  एक ग्रीक शब्द है, जिसकी उत्पत्ति फोटोज (लाइट) और ग्राफीन यानी उसे खींचने से हुई है।

भारत में प्रोफेशनल फोटोग्राफी की शुरुआत व पहले फोटोग्राफरः 

भारत की प्रोफेशनल की शुरुआत 1840 में हुई थी। कई अंग्रेज फोटोग्राफर भारत में खूबसूरत जगहों और ऐतिहासिक स्मारकों को रिकॉर्ड करने के लिए भारत आए। 1847 में ब्रिटिश फोटोग्राफर विलियम आर्मस्ट्रांग ने भारत आकर अजंता एलोरा की गुफाओं और मंदिरों का सर्वे कर इन पर एक किताब प्रकाशित की थी।
कुछ भारतीय राजाओं और राजकुमारों ने भी फोटोग्राफी में हाथ आजमाए, इनमें चंबा के राजा, जयपुर के महाराजा रामसिंह व बनारस के महाराजा आदि प्रमुख थे। लेकिन अगर किसी ने भारतीय फोटोग्राफी को बड़े स्तर तक पहुंचाया है तो वह हैं लाला दीन दयाल, जिन्हें राजा दीन दयाल के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास सरधाना में 1844 में सुनार परिवार में हुआ था। उनका करियर 1870 के मध्य कमीशंड फोटोग्राफर के रूप में शुरू हुआ। बाद में उन्होंने अपने स्टूडियो मुंबई, हैदराबाद और इंदौर में खोले। हैदराबाद के छठे निजाम महबूब अली खान ने इन्हें मुसव्विर जंग राजा बहादुर का खिताब दिया था। 1885 में उनकी नियुक्ति भारत के वॉयसराय के फोटोग्राफर के तौर पर हुई थी, और 1897 में क्वीन विक्टोरिया से रॉयल वारंट प्राप्त हुआ था। उनके स्टूडियो के 2857 निगेटिव ग्लास प्लेट को 1989 में इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फार ऑर्ट, नई दिल्ली के द्वारा खरीदा गया था, जो आज के समय में सबसे बड़ा पुराने फोटोग्राफ का भंडार है। 2010 में आइजीएनसीए में और 2006 में हैदराबाद फेस्टिवल के दौरान सालार जंग म्यूजियम में उनकी फोटोग्राफी को प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया था। नवंबर 2006 में संचार मंत्रालय, डाक विभाग द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था।