फिल्मों का इतिहास अधिक पुराना नहीं है, उसी प्रकार फिल्मी पत्रकारिता का इतिहास भी बहुत पुराना नहीं है। हिंदी का फिल्म प्रेस तो कभी अद्धशताब्दी भी नहीं मना पाया। हिंदी की फिल्मी पत्रकारिता के विषय में उल्लेखनीय है कि इसका केंद्र सदा से दिल्ली रहा है, हालांकि फिल्म-निर्माण के केंद्र, बंबई, कलकत्ता, मद्रास रहे हैं। हिंदी के फिल्मी पत्र कलकत्ता से भी निकलते हैं और बंबई से भी, परंतु अग्रणी होने का श्रेय दिल्ली को ही है और आज भी सबसे अधिक फिल्मी पत्रिकाएं राजधानी से ही प्रकाशित होती है।
दिल्ली को यह महत्त्व मिलने का मुख्य कारण है-वितरण और प्रदर्शन का यह प्रमुख केंद्र है। हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र में दिल्ली ही फिल्म-व्यवसाय का सबसे महत्त्वपूर्ण नगर है। फिल्म वितरकों से फिल्मी पत्रिकाओं को लगभग उतना ही सहयोग मिल जाता है, जितना निर्माताओं से मिल पाता। विज्ञापन, ब्लाक्स आदि जुटाने में पत्र-संचालकों को कठिनाई नहीं होती। इस शताब्दी के तीसरे दशक की समाप्ति तक फिल्म-क्षेत्र में अच्छे परिवारों के कई शिक्षित एवं जागरूक लोग पदार्पण कर चुके थे। हिमांशु राय, देवकी बोस, बी.एन. सरकार, मोहन भवनानी, पी.सी. बरुआ, पृथ्वीराज कपूर, जयराज, देविका रानी, दुर्गा खोटे और ईनाक्षी रामाराव के आगमन से जहां सिनेमा का स्वरूप सुधरा, वहां समाज की रुचि भी इसकी ओर आकृष्टï हुई।
1931 में बंबई की इंपीरियल कंपनी ने आलम आरा का निर्माण करके लोगों को चौंका दिया। सिनेमा के गूंगे कलाकार बोलने लगे और गाने लगे। इस जादू को देखकर पढ़े-लिखे समाज पर भी सिनेमा का जादू चल गया। लोगों में फिल्मों के बारे में, उनमें कार्य करने वालों के विषय में जानने की उत्सुकता जागृत हुई। इसको दिल्ली के कुछ जागरूक लोगों ने अनुभव करके ही 1932 में दिल्ली से रंगभूमि का प्रकाशन किया। हिंदी की इस प्रथम फिल्मी पत्रिका के संपादक श्री लेखराम थे। यह साप्ताहिक थी और इसका मूल्य दो पैसे था। (श्री रामचंद्र तिवारी अपने शोध प्रबंध स्वाधीनता के बाद हिंदी पत्रिकाओं का विकास में लिखते हैं-फिल्मों संबंधी हिंदी की पहली पत्रिका होने का गौरव नव चित्रपट को प्राप्त है, जो 1932 में दिल्ली से निकली थी। इसी ग्रंथ के लेख मध्यभारत की हिंदी पत्रकारिता में राजकुमार जैन ने कहा है कि 1931 में इंदौर से प्रकाशित मंच हिंदी की पहली फिल्म पत्रिका है।)
दो रंगे मुख्यपृष्ठ वाली रंभभूमि के आवरण पर किसी अभिनेत्री का चित्र होता था। भीतर फिल्म समाचार, निर्माणाधीन फिल्मों का विवरण, समीक्षा, फिल्म बनाने वालों का परिचय, नयी फिल्मों के गीत के अतिरिक्त कहानियां, कविताएं तथा शेरोशायरी भी हुआ करती थी।
1936 तक रंगभूमि अकेली निकलती रही। 1936 में हिंदी के जाने-माने साहित्यकार श्री ऋषभचरण जैन ने दिल्ली से ही एक और फिल्मी साप्ताहिक आरंभ किया। इसका नाम था चित्रपट। रूपरेखा लगभग इसकी भी वही थी परंतु कलेवर में यह रंगभूमि से अधिक गंभीर थी। दूसरे, ऋषभजी के कारण इसे कई समकालीन साहित्यकारों का भी सहयोग प्राप्त हुआ। सर्वश्री जैनेंद्रकुमार जेन, मुंशी प्रेमचंद, बेचन शर्मा उग्र, नरोत्तम व्यास, विशंभर नाथ शर्मा कौशिक आदि ने चित्रपट के लिए लिखा। इस पत्रिका ने धारावाहिक उपन्यास प्रकाशित करने की परंपरा भी डाली। स्वयं श्री ऋषभचरण जैन के कई चर्चित उपन्यास पहले चित्रपट में ही प्रकाशित हुए।
रंगभूमि चित्रपट से टक्कर न ले सकी। फलस्वरूप कुछ वर्ष चलकर उसका प्रकाशन रुक गया। 1941 में श्री धर्मपाल गुप्ता ने रंगभूमि का पुन: प्रकाशन आरंभ किया। आज भी रंगभूमि उन्हीं के संपादन में निकल रही है। धर्मपालजी ने रंगभूमि मासिक के रूप में आरंभ की। साप्ताहिक रंगभूमि का आकार 18&22 का चौथाई था और वह सफेद कागज पर निकलती थी। मासिक रंगभूमि निकली तो इतावली आर्ट पेपर पर, परंतु उसका आकार पहले से आधा हो गया। मुखपृष्टï पर तिरंगा चित्र होता था। भीतर भी दो रंगीन चित्र दिये जाते। अब इसका मूल्य चार आने हो गया था। फिल्मों का प्रभाव दिनों दिन बढ़ रहा था। रंगभूमि और चित्रपट के अतिरिक्त अंग्रेजी में बंबई की फिल्म इंडिया और टाकी हैरल्ड, कलकत्ता से प्रकाशित दीपाली, दिल्ली से छपने वाली रूपवानी तथा लाहौर से निकलने वाली फिल्म पिक्टोरियल और स्क्रीन वल्र्ड नामक अंग्रेजी पत्रिकाओं ने हिंदी प्रकाशकों को भी फिल्मी पत्रिकाएं निकालने की प्रेरणा प्रदान की। फलस्वरूप हिंदी में भी कई पत्रिकाएं निकलीं। विश्वयुद्ध के दिनों में जिन फिल्मी पत्रिकाओं की चर्चा रही वे थीं रसभरी, चित्र प्रकाश, कौमुदी जो दिल्ली से प्रकाशित हो रही थीं, अभिनय जो कलकत्ता से प्रकाशित हो रही थी और रूपम जो लाहौर से छप रही थी।
1947 में लाहौर पाकिस्तान में चला गया। फलस्वरूप वहां के कई वरिष्ठ पत्रकार भारत आ गये। इनमें कुछ बंबई चले गये तो कुछ ने दिल्ली में ही अपने पुराने पत्रों को प्रकाशित करना आरंभ किया। चित्रपट के एक भूतपूर्व संपादक श्री संपतलाल पुरोहित ने 1947 में युग छाया का प्रकाशन आरंभ किया। उन्हीं दिनों श्री ब्रजमोहन ने फिल्म चित्र निकाली, पर यह पत्रिका फिल्मी कम और राजनीतिक अधिक थी। 1948 में श्री राज केसरी ने चित्रलेखा का प्रकाशन आरंभ किया।
1948 में प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक श्री ख्वाजा अहमद अब्बास ने बंबई से हिंदी मासिक सरगम आरंभ किया। सरगम का प्रथम भाग साहित्यिक होता था तथा द्वितीय भाग में फिल्मी सामग्री दी जाती थी। सरगम ने बड़ी अच्छी प्रकाशित की। उर्दू के अनेक जाने-माने साहित्यकारों ने इसे सहयोग दिया। परंतु डेढ़-दो वर्ष चलकर यह सुंदर पत्रिका बंद हो गयी। इन्हीं दिनों राजधानी से चित्रकार नामक एक साप्ताहिक निकला। अपने बड़े आकार के कारण इस साप्ताहिक की कुछ दिन तो धाक जमी परंतु अंत में यह भी बंद हो गया। 1950 के आसपास हिंदी में और भी कई फिल्म-प्रकाशित हुईं, इनमें कल्पना (संपादक : बच्चन श्रीवास्तव), शबनम (संपादक : देवेंद्र कुमार) तथा अनुपम (संपादक : राज चोपड़ा) बंद तो जल्दी हो गयीं परंतु अचछी सामग्री और आकर्षक साज-सज्जा के कारण बहुत समय तक याद हो गयीं।
आरंभ में फिल्मी पत्रिकाओं की प्रसार-संख्या पांच सौ से दो हजार तक होती थी। तीन-चार हजार प्रतियां छापना प्रतिष्ठा की बात समझी जाती थी। साथ ही यह भी माना जाता था कि हिंदी का फिल्मी पाठक वर्ग इससे अधिक बड़ा नहीं है। यही कारण है कि तब तक पत्रिका-प्रकाशक बजाय पाठकों के, फिल्म जगत पर विशेष रूप से उसके विज्ञापनों पर अधिक निर्भर रहते थे। फिल्मी पत्रिकाओं की पाठक-संख्या बहुत व्यापक हो सकती है, यह सत्य पहली बार प्रकाशकों को तब ज्ञात हुआ जब रंगभूमि ने फिल्मी ड्रामा नामक एक नया स्तंभ आरंभ किया। इस स्तंभ के अंतर्गत प्रदर्शित फिल्मों की संक्षिप्त कथा, संवादों और गीतों सहित दी जाने लगी।
आरंभ में रंगभूमि ने बाजार से दो आने का पुस्तक रूप में प्रकाशित ड्रामा लेकर उसे पत्रिका में छापना शुरू किया। यह टोटका-चमत्कार साबित हुआ। रंगभूमि की बिक्री शीघ्रता से बढऩे लगी। जब अन्य फिल्मी-पत्रिकाओं को यह रहस्य मालूम हुआ तो उन्होंने भी ड्रामे देने आरंभ कर दिये।
ड्रामों की प्रतिस्पद्र्धा बढ़ी। कुछ संपादकों ने नये से नये फिल्मों के ड्रामे विशेष रूप से लिखवाये। कुछ लोगों ने रजतपट से देखकर ड्रामे लिखने में कुशलता प्राप्त की। ये लेखक बाहर भी भेजे जाने लगे। मदर इंडिया जैसी फिल्मों के ड्रामे लिखने के लिए लेखक बंबई तक भेजे गये। दो आने की चीज की कीमत अब तीस रुपये तक पहुंच गयी। आरंभ में रंगभूमि ने एक ड्रामा दिया। मुकाबले में दूसरे ने दो-दो और तीन-तीन ड्रामे दिये। छायाकार और प्रिया जैसी पत्रिकाओं में मुख्य आकर्षण फिल्मी ड्रामे ही थे।
हिंदी की बढ़ती हुई पाठक संख्या और उर्दू के घटते प्रभाव के कारण उर्दू ही दो प्रमुख फिल्मी पत्रिकाओं ने अपने हिंदी संस्करण आरंभ किये। 1958 में लोकप्रिय उर्दू मासिक शमा ने हिंदी में सुषमा का प्रकाशन आरंभ किया। इसके प्रथम संपादक श्री करुणा शंकर थे। उर्दू साप्ताहिक चित्रा ने भी 1963 में हिंदी में चित्रा का एक हिंदी मासिक संस्करण शुरू कर दिया। फिल्मी दुनिया (संपादक : नरेंद्र कुमार) विगत कई वर्षों से हिंदी का सबसे अधिक बिकने वाला फिल्मी मासिक माना जाता है। इसका प्रकाशन 1958 में आरंभ हुआ था। इसकी प्रसार संख्या 90 हजार प्रतियों तक पहुंच चुकी है।
हिंदी की सबसे अधिक बिकने वाली फिल्मी पत्रिका आज भी माधुरी ही है। सच तो यह है कि फिल्मी पत्रकारिता के इतिहास में माधुरी का प्रकाशन एक शिलालेख के रूप में वर्णित होगा। कारण, टाइम्स ऑफ इंडिया के इस पाक्षिक प्रकाशन ने जहां एक स्वस्थ फिल्म-पत्रिका की परंपरा को सशक्त किया, वहां एक उच्चस्तरीय फिल्म प्रकाशन का आदर्श भी स्थापित किया। 1963 में माधुरी का प्रकाशन श्री अरविंद कुमार के संपादन में आरंभ हुआ। शुरू में इसका आकार फिल्मफेयर जितना था और नाम था सुचित्रा। सुचित्रा के अभी कुछ ही अंक निकले थे कि दिल्ली के एक उर्दू साप्ताहिक ने नाम पर आपत्ति उठाकर दावा कर दिया। इस दावे के फलस्वरूप सुचित्रा का नाम माधुरी कर दिया गया। हालांकि बाद में माधुरी के प्रकाशक मुकदमा जीत गये, पर इस बीच एक नया नाम इतना लोकप्रिय हो चुका था माधुरी को पुन: सुचित्रा बनाने की आवश्यकता ही नहीं रही।
फिल्मी पत्रिकाओं की बढ़ती हुई बिक्री से प्रेरित होकर इस क्षेत्र में नये-नये प्रकाशक आये। 1962 में राधिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। 1965 में दिल्ली से फिल्मी कलियां शुरू हुई। कुछ ही दिनों बाद मेनमा शुरू हुई। इससे कुछ अर्से बाद फिल्म रेखा, फिल्मांजली और फिल्मलता का प्रकाशन आरंभ हो गया।
1973 में राजधानी से श्री अनिल नरेंद्र के संपादन में पालकी का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसमें फिल्म एवं महिला जगत की मिली-जुली सामग्री दी गयी। 1975 के आरंभ में बंबई से सिनेमा संबंधी एक और नयी पत्रिका निकली रजनीगंधा। इस मासिक पत्रिका के संपादक श्री त्यागी है। इसी वर्ष के मध्य में इंडियन एक्सप्रेस ने दिल्ली से एक साप्ताहिक प्रकाशन आरंभ किया है आसपास। श्री प्रभाष जोशी के संपादन में निकल रहे इस सांस्कृतिक साप्ताहिक में फिल्मों पर काफी सामग्री दी जाती है।
आरंभ में फिल्मी पत्रिकाओं में फिल्मों के समाचार, समीक्षाएं, कलाकारों आदि के परिचय और भेंट-वार्ताएं, फिल्मी कहानियां और फिल्मी गीत आदि दिये जाते थे। यह सामग्री सामान्यत: सही और खरी होती थी। परंतु विगत कुछ वर्षों से अंग्रेजी की कुछ फिल्मी पत्रिकाओं को मिली सफलता ने अफवाहबाजी और गपशप को इतना अधिक बढ़ावा दिया कि हिंदी की फिल्मी पत्रकारिता भी उसके प्रभाव से अपनी रक्षा न कर सकी।
यों इस तरह की चटपटी और चुभने वाली सामग्री फिल्म इंडिया अपने लोकप्रिय स्तंभ बांबे कालिंग से विगत चालीस वर्ष से दे रहा था, परंतु उसका कुछ आधार होता था। केवल कल्पना की उड़ान का सहारा नहीं लिया जाता था। उर्दू में भी इस तरह की सामग्री प्रकाशित करने की परंपरा रही। शमा का कच्चा चिट्ठा स्तंभ इस तरह की सामग्री के लिए कई वर्ष प्रसिद्ध रहा और कई बार इसके कारण उसे कचहरी तक भी जाना पड़ा।
परंतु हिंदी की फिल्मी पत्रिकाएं इस तरह की सामग्री नहीं दिया करती थीं। कुछ पत्रिकाओं में जुहू तट से, चोर दाढ़ी तिनके, राम जाने, मानो न मानो तिहारी मरजी, पर्दे के पीछे जैसे स्तंभ निकलते थे। पर इनमें या तो व्यक्तियों के नाम संकेत रूप में दिये जाते थे या फिर बात हलकी चुटकी तक सीमित रहती थी। परंतु अंग्रेजी की इन नयी मासिक पत्रिकाओं ने शालीनता की समस्त सीमाएं त्याग दीं। ऐसी-ऐसी सामग्री दी कि पढऩे वाले दंग रह गये। उधर इन पत्रिकाओं की बढ़ती हुई बिक्री ने हिंदी पत्रिकाओं के प्रकाशकों पर भी प्रभाव डाला। परिणाम यह हुआ कि माधुरी को छोड़, प्राय: सभी ने सनसनीपूर्ण सामग्री देनी आरंभ कर दी। रोमांस तलाक की बात छोडि़ए, गर्भपात तक के चर्चे खुले आम होने लगे। गंभीर एवं विवेचनात्मक लेखों का प्रकाशन नहीं के बराबर रह गया।
देखते-देखते बात इतनी बढ़ गयी कि 1974 में फिल्म उद्योग ने इस तरह की पत्रकारिता को रोकने के लिए कुछ प्रयास किये। परंतु उसके ठोस परिणाम नहीं निकले। 1975 के मध्य आपात्कालीन स्थिति लागू हुई। नये सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल आये तो उन्होंने इस तरह की आपत्तिजनक पत्रकारिता पर रोक लगाने का आग्रह किया। फलस्वरूप अगस्त 75 में बंबई के कुछ फिल्मी संपादकों ने मिलकर फिल्म सेंसर बोर्ड के प्रधान के सहयोग से एक आचार संहिता तैयार की। इसमें पत्रकारों की लेखन स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी यह आग्रह किया गया कि ऐसी सामग्री प्रकाशित न की जाये जिसमें फिल्मवालों का चरित्र हनन हो अथवा उनके व्यक्तिगत संबंध बिगड़ें। इस आचार संहिता का किसी सीमा तक पालन होगा, यह भविष्य ही बता सकेगा। फिल्मी पत्रिकाओं में महत्त्वपूर्ण पत्रिका जिसने आरंभ से ही फिल्म समीक्षा को महत्त्व दिया, वह है सरिता। सरिता ने ही श्रेष्ठता के आधार पर फिल्मों के वर्गीकरण की परिपाटी आरंभ की। साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग ने भी सिनेमा को गंभीरता से लिया। यही कारण है कि इन दोनों ही साप्ताहिकों ने नियमित रूप से न केवल फिल्म संबंधी सामग्री दी अपितु उच्चस्तर की सामग्री भी उपलब्ध करायी।
दैनिक पत्रों ने आरंभ में सिनेमा के प्रति उपेक्षा बरती। इसका कारण था। स्वाधीनता से पूर्व हिंदी के प्राय: सभी दैनिक स्वाधीनता आंदोलन को सक्रिय सहयोग दे रहे थे। वैसे भी तब तक शिक्षित एवं बुद्धिजीवी वर्ग फिल्मों और फिल्म वालों को हेय दृष्टिï से देखता था। हिंदी के साहित्यिक वर्ग की दृष्टिï में सिनेमा घटिया मनोरंजन का साधन था। प्रत्यक्ष रूप में भारतीय फिल्में राष्टï्रीय आंदोलन में कई सहयोग नहीं दे पा रही थीं। फिल्म बनाने वालों के लिए ऐसा कर पाना संभव भी नहीं था। विदेशी सेंसर बोर्ड के होते हुए, जब फिल्मों के नाम बम और महात्मा तक रखना अपराध था, सिनेमा के पर्दे पर महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के चित्र तक दिखाना गैर कानूनी था, तब भला फिल्मों में प्रत्यक्ष रूप से देश की आजादी की बात कर पाना कैसे संभव हो सकता था। इस सत्य के बावजूद प्रत्यक्ष रूप से सिनेमा ने जनजागरण में, अपनी भूमिका अदा की। अमर ज्योति, वहां, बरांडी की बोतल, पड़ोसी, जमींदार, अपना घर, जमीन, सिकंदर, रामशास्त्री, नया तराना आदि वे फिल्में थीं, जिन्होंने दर्शकों में देश के प्रति प्यार जागृत किया और देखने वालों को सांप्रदायिक एकता, अन्याय का विरोध तथा भारतीयता के प्रति श्रद्धा रखने की प्रेरणा प्रदान की।
स्वाधीनता से पूर्व बंबई तथा कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक तो थोड़ी बहुत फिल्म सामग्री देते थे परंतु हिंदी में विश्वमित्र को छोड़कर अन्य किसी भी प्रमुख दैनिक में फिल्में की चर्चा नहीं होती थी। राष्टï्रीय दैनिक पत्रों का रवैया बदला नवभारत टाइम्स के प्रकाशन से। नवभारत टाइम्स ने लगभग आरंभ से ही साप्ताहिक फिल्मी स्तंभ दिया। दैनिक हिंदुस्तान ने आरंभ में थोड़ी सामग्री दी, बाद में नियमित रूप से सप्ताह में एक बार एक पृष्ठ फिल्मों पर देना आरंभ किया। उधर राष्टï्रीय दैनिकों के स्वरूप में आये इस परिवर्तन के फलस्वरूप आज, नवजीवन, स्वतंत्र भारत, नवभारत, नई दुनिया आदि अन्य दैनिकों ने भी फिल्मों और फिल्म वालों पर नियमित रूप से टिप्पणियां प्रकाशित करनी शुरू की।
इस परिवर्तित दृष्टिïकोण के कई कारण थे। एक तो हिंदी का पाठक अब उस विद्या के विषय में आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने को उत्सुक था जो उनके मनोरंजन का सर्वप्रिय साधन थी। दूसरे, स्वाधीन भारत में राष्टï्र के नव-निर्माण में सिनेमा ने अपनी भूमिका अदा करनी शुरू कर दी थी। तीसरे, राष्टï्रीय सरकार भी अब सिनेमा के विकास के प्रति प्रयत्नशील थी। 1951 की फिल्म जांच-पड़ताल समिति, 1954 में राष्टï्रीय फिल्म पुरस्कारों की स्थापना आदि ने प्रबुद्ध एवं शिक्षित समाज के दृष्टिïकोण को बदला था और यही दवा का बदलता हुआ रुख दैनिक पत्रों में अभिव्यक्ति पाने लगा। इस समय यों तो सभी प्रमुख हिंदी दैनिक फिल्मों पर नियमित सामग्री प्रकाशित कर रहे हैं, परंतु विगत कुछ वर्षों से पंजाब के कुछ हिंदी दैनिकों ने फिल्मी सामग्री प्रकाशित करने में देश के अन्य सभी दैनिकों से बाजी मार ली है। पंजाब केसरी, वीर प्रताप तथा हिंदी मिलाप सप्ताह में एक बार नियमित रूप से फिल्म संस्करण प्रकाशित करते हैं। उस दिन उनके मुखपृष्ठ पर अथवा अंतिम पृष्ठ पर फिल्म कलाकारों के रंगीन चित्र होते हैं। उस दिन फिल्म कलाकारों को प्रमुखता प्रदान की जाती है तथा कम से कम दो पृष्ठ सिनेमा संबंधी सामग्री से भरे होते हैं।
फिल्मी पत्रकारों के इस समय देश में कई संगठन है। इनमें सबसे पुराना है कलकत्ते का बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसियेशन। करीब बीस वर्ष हुए, बंबई के फिल्मी पत्रकारों एवं समीक्षकों ने बांबे फिल्म जर्नलिस्ट्स एसोसियेशन स्थापित किया। इस संगठन ने बंगाल के संगठन के समान कलाकारों और फिल्मों को पुरस्कृत करना भी आरंभ किया, परंतु कुछ ही वर्षों में इसमें पत्रकारों का एक वर्ग पृथक हो गया। इन अलग हुए लोगों ने फिल्म क्रिटिक्स क्लब बनाया। परंतु समय के साथ-साथ यह संगठन भी निष्क्रिय हो गया। दूसरे अंतरराष्टï्रीय फिल्म समारोह के दौरान राजधानी के फिल्मी पत्रकारों को समारोह कवर करने में जब कठिनाई हुई तो उन्होंने भी अपने को संगठित करने का निर्णय किया। 1962 में दिल्ली में फिल्म क्रिटिक्स एसोसियेशन की स्थापना हुई, तब से यह संगठन अभी तक सक्रिय है।
1973 में बंबई के फिल्म पत्रकारों ने एक बार पुन: अपना संगठन बनाया। अब की बार इसका नाम रखा गया फिल्म जर्नलिस्ट सोसायटी। यह संस्था काफी कुछ कार्य कर रही है। लखनऊ, कलकत्ता, बंबई, दिल्ली तथा हैदराबाद आदि में जितने भी पत्रकार संगठन हैं उनमें सभी भाषाओं के फिल्म पत्रकारों और समीक्षकों को सदस्यता प्रदान की गयी है। भाषा के आधार पर न तो अंग्रेजी के फिल्मी पत्रकारों का कोई संगठन है और न हिंदी के फिल्मी पत्रकारों का।
इन दिनों में कुल मिलाकर हिंदी में करीब 75 फिल्मी पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। छोटी-बड़ी सब मिलाकर कम से कम तीन दर्जन फिल्मी पत्रिकाएं तो अकेले दिल्ली से प्रकाशित होती हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से प्रकाशित होने वाली कुछ फिल्मी पत्रिकाओं के नाम इस प्रकार हैं - चित्र भारती मासिक (कलकत्ता, 1955), सिने चित्रा साप्ताहिक (कलकत्ता, 1955), सिने वाणी सा. (बंबई, 1956), कला संसार सा. (कलकत्ता 1957), सिने सितारा मा. (कलकत्ता, 1957), रजत पट पाक्षिक (महू छावनी, 1957), रसभरी मा. (दिल्ली), फिल्मिस्तान मा. (फिरोजपुर, 1958), फिल्म किरण मा. (जबलपुर, 1959), चित्र छाया मा. (दिल्ली, 1959), इंदुमती मा. (दिल्ली, 1959), सिने एक्सप्रेस सा. (इंदौर, 1959), चित्रावली सा. (बंबई, 1959), प्रीत मा. (जोधपुर, 1959), नीलम मा. (दिल्ली, 1960), मधुबाला मा. (दिल्ली, 1960), मनोरंजन मा. (दिल्ली, 1962), रस नटराज सा. (बंबई, 1963), कजरा मा. (कानपुर, 1964), फिल्म अप्सरा मा. (दिल्ली, 1964), बबीता मा. (दिल्ली, 1967), सिने पोस्ट मा. (दिल्ली, 1968), फिल्म रेखा मा. (दिल्ली, 1968), फिल्मी कलियां मो. (दिल्ली, 1968), फिल्मांकन सा. (बंबई, 1969), सिने हलचल पा. (अजमेर, 1969), अभिनेत्री पा. (लुधियाना, 1970), फिल्म शृंगार मा. (दिल्ली, 1970), फिल्मी परियां मा. (लखनऊ, 1970), फिल्म संसार मा. (मेरठ, 1970), फिल्मी कमल मा. (मेरठ, 1970), फिल्म अभिनेत्री मा. (मेरठ, 1970), पूनम की रात सा. (जबलपुर, 1970), चित्र किरण सा. (बंबई, 1970), सिने हलचल मा. (दिल्ली, 1971)।
हिंदी के प्रमुख साप्ताहिक फिल्मी पत्रों में दिल्ली से प्रकाशित आसपास बंबई, से प्रकाशित उर्जशी, कलकत्ता से प्रकाशित स्क्रीन हैं। पाक्षिक केवल एक ही निकलती है, माधुरी। मासिक पत्रिकाओं में फिल्मी दुनिया, सुषमा, पालकी, फिल्मी कलियां, रंग भूमि तथा चित्रलेखा, राजधानी से प्रकाशित होती हैं और रजनी गंधा बंबई में। इन फिल्मी पत्रिकाओं के अतिरिक्त मेनका, युग छाया, नव चित्र पट, राधिका, फिलमांजलि, छायाकार, प्रिया भी नियमपूर्वक प्रकाशित हो रही हैं। माधुरी को छोड़ शेष सभी फिल्मी पत्रिकाएं कथा-साहित्य प्रकाशित करती हैं। पालकी और आसपास में अच्छी फिल्मी सामग्री के अतिरिक्त अन्य कई विषयों पर भी सामग्री दी जाती है। फिल्मों का प्रभाव फिल्मी पत्रिकाओं पर भी पड़ा है। तभी तो आज जिस प्रकार साधारण श्वेत श्याम फिल्मों का युग नहीं रहा, उसी प्रकार फिल्मी पत्रिकाओं के लिए बिना रंगीन सामग्री दिये अपना अस्तित्व बनाये रखना असंभव हो रहा है।
क्या फिल्म-उद्योग वाले फिल्मी पत्रिकाओं पर हावी हैं? क्या उनके विज्ञापन का समीक्षाओं पर प्रभाव पड़ता है? क्या पत्र-पत्रिकाओं में हुई आलोचनाओं को फिल्म बनाने वाले गंभीरता से लेते हैं। जहां तक हावी होने का प्रश्न है फिल्म उद्योग का फिल्म पत्रों पर कोई प्रभाव नहीं। विज्ञापन का असर भी केवल उन पत्रों पर पड़ता है, जिनकी बिक्री सीमित है और जो केवल विज्ञापनों के बल पर पत्रिका प्रकाशित करते हैं। जो फिल्मी पत्रिकाएं, चाहे वे हिंदी की हों अथवा किसी अन्य भाषा की, अपने पाठकों के बल पर प्रकाशित होती हैं, वे विज्ञापन के प्रभाव से सर्वथा मुक्त हैं। रही फिल्म वालों पर प्रभाव की बात, तो कहने को तो वे कहते हैं कि स्वस्थ आलोचना का वे स्वागत करते हैं परंतु वास्तविकता यह है कि वे इनकी अधिक परवाह नहीं करते। उन पर न फिल्म-समीक्षाओं का प्रभाव पड़ता है, न संपादकीय टिप्पणियों का। यदि पड़ता तो सिनेमा का स्वरूप इतना विकृत न होता और सामाजिक दायित्व के प्रति फिल्म वाले इतनी उपेक्षा न दर्शाते।
जिस तरह भारतीय फिल्म फार्मूले में फंसी हुई है, लगभग वही स्थिति फिल्मी पत्रकारिता की बन गयी है-विशेष रूप से हिंदी में। हिंदी फिल्मों की तरह हिंदी की फिल्मी पत्रकारिता का रूप भी लगभग निश्चित ही है। कुछ रंगीन चित्र, चार-पांच चटपटे लेख, फिल्म की कहानी या फिल्मी ड्रामा, प्रश्न-उत्तर का स्तंभ, कुछ फिल्मी समाचार और कुछ किस्से कहानियां। एक संपादकीय और एक पृष्टï पाठकों के पत्र का, जिसमें केवल स्तुति पत्रों को प्रमुखता मिलती है। फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन कल तक सबसे सहज माना जाता है। अन्य किसी भी विषय पर पत्रिका प्रकाशित करने के लिए ऐसे संपादक की आवश्यकता होती है, जिसे उस विषय का ज्ञान हो। परंतु फिल्मी पत्रिका के लिए ऐसे किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं। पत्रिकाओं का कलेवर निश्चित है। आकार निर्धारित हैं। बस, वितरकों से रंगीन ब्लाक किये, कुछ नये-पुराने लेख जमा किये और पत्रिका का प्रकाशन शुरू।
इधर कुछ वर्ष से स्थिति बदली है। उच्च स्तर की पत्रिकाओं ने प्रकाशकों को यह स्वीकारने पर विवश किया है कि फिल्मी पत्रकारिता के लिए भी आवश्यक ज्ञान अनिवार्य है। और उसी का यह परिणाम है कि अब फिल्मी पत्रकारों को हिंदी की गिनी-चुनी पत्रिकाएं उपयुक्त पारिश्रमिक भी देने लगी हैं। यह तो कटु सत्य, पर है यथार्थ कि कुछ गिने-चुने पत्रकारों को छोड़कर, सामान्य हिंदी फिल्मी पत्रकार का स्तर बहुत नीचा है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि फिल्मों और फिल्मी सितारों में रुचि रखने वाला हर युवक कलम उठाने को तत्पर हो जाता है और किसी परिचित की फिल्म पत्रिका मिलते ही लिखना शुरू कर देता है। फिल्मों और फिल्म वालों पर लिखने वाले अधिकांश लेखकों को विश्व-सिनेमा तो दूर, भारतीय सिनेमा के इतिहास का भी ज्ञान नहीं होता। संसार के अन्य देशों में सिनेमा के संदर्भ में कौन-कौन सी धाराएं कब चलीं, इसका अध्ययन करना तो बड़ी बता है, उन्हें इस देश के प्रादेशिक सिनेमा तक की जानकारी नहीं होती।
एक जागरूक सिने समीक्षक को फिल्म इतिहास के साथ-साथ साहित्य, कला, संगीत, चित्रकारी, जनजीवन, नाटक आदि का भी अच्छा ज्ञान होना चाहिए। बिना इस पृष्ठभूमि के वह न तो सही मूल्यांकन कर पायगा और न अपने पाठकों को उचित दिशा-निर्देश दे सकेगा। फिल्म-निर्माण कसे होता है-इसका ज्ञान होना भी अनिवार्य है। उसे कथा और पटकथा का अंतर पता होना चाहिए। उसे ज्ञात होना चाहिए कि इनडोर और आउटडोर शूटिंग में कितना फर्क है। क्लोज अप और लांग शाट किसे कहते हैं। बैंक प्रोजेक्शन तथा सुपर इंपोजीशन की क्या उपयोगिता है। भारतीय भाषाओं में बन रही फिल्मों की तथा फिल्म बनाने वालों की आर्थिक स्थिति, कलात्मक रुझान, पृष्टïभूमि आदि की आवश्यक जानकारी होनी चाहिए। इतना कुछ ज्ञात होने पर ही अच्छे फिल्मी समीक्षक होने की अपेक्षा की जा सकती है। इतना कुछ ज्ञात होने पर ही अच्छे फिल्मी समीक्षक होने की अपेक्षा की जा सकती है। पर कितने ही फिल्मी पत्रकार और समीक्षक हैं, जो इस ज्ञान में लगभग कोरे हैं। उनका फिल्म ज्ञान केवल कुछ फिल्मी पत्रिकाओं तक ही सीमित है। वे कलाकारों से बिना मिले उनकी भेंटवार्ताएं तक तैयार कर लेते हैं। हिंदी का यह दुर्भाग्य है कि जिन दैनिकों में फिल्मी सामग्री प्रकाशित होती है, उनमें से अधिकांश में यही स्तंभ सबसे अधिक उपेक्षित रहता है।
विभिन्न देशों की फिल्मी पत्रिकाओं से भारत की प्रमुख सिने पत्रिकाओं की तुलना करें तो हम यह सगर्व कह सकते हैं कि संस्था की ही दृष्टिï से नहीं, आकार, कलेवर और साज-सज्जा के आधार पर भी भारत की प्रमुख फिल्मी पत्रिकाओं को विश्व के श्रेष्ठतम फिल्मी पात्रों के समकक्ष रखा जा सकता है। अंग्रेजी फिल्म पत्रों जैसे फिल्मफेयर, स्टार एंड स्टाइल, स्टारडस्ट, फिल्म वल्र्ड तथा सिने-ब्लिट्ज की अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन या किसी भी अन्य देश की प्रमुख फिल्म पत्रिकाओं से तुलना कर सकते हैं। ये भारतीय फिल्म पत्रिकाएं अमेरिका के स्क्रीन वल्र्ड, मोशन पिक्चर्स ब्रिटेन की फिल्म एंड टीवी न्यूज रूस के सोवियत फिल्म तथा पोलेंड के फिल्म पोलांसकी जैसी संसार-प्रसिद्ध फिल्मी पत्रिकाओं से किसी भी तरह पीछे नहीं। केवल अंग्रेजी ही की क्यों, हिंदी की माधुरी, तमिल की बोंबाई तथा बंगला की आनंदलोक को संसार की श्रेष्ठतम फिल्मी पत्रिकाओं के बीच स्थान मिल सकता है।
हां, अभी भी भारत में शुद्ध गंभीर फिल्म पत्रिका नियमित रूप से प्रकाशित नहीं हो पायी है। फिल्म कलचर और फिल्म फोरम जैसी फिल्मी पत्रिकाएं जिनमें सिनेमा के विभिन्न पक्षों का गंभीर विवेचन किया गया था, समय-समय पर प्रकाशित तो हुईं परंतु किसी का भी जीवन छह अंक से आगे नहीं बढ़ सका। इस दृष्टिï से ब्रिटेन से प्रकाशित साइट एंड साउंड तथा फिल्म एंड फिल्ंिमग ने विभिन्न देशों के फिल्मकर्मियों और सिनेमा के गंभीर छात्रों को जो ज्ञान प्रदान किया है, उसकी कमी इस देश में अवश्य खटकती है।
भारतीय फिल्म पत्रकारों में सर्व श्री बाबूराव पटेल, क्लेयर मंडोसा, एल.पी. राव, बकुलेश, डी.पी. बेरी तथा एम.एल. पराशर को नहीं भुलाया जा सकता। इन पुराने पत्रकारों के अतिरिक्त सर्व श्री वी.पी. साठे, अजीतप्रसाद जैन, हाफिजी, कमला मनकेकर तथा प्रमिला कल्हन ने भी अपने-अपने समय में फिल्म पत्रकारिता अथवा सिने समीक्षा को निखारने और संवारने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। हिंदी में निश्चय ही जागरूक, ईमानदार एवं फिल्म-विद्या का अच्छा ज्ञान रखने वाले पत्रकार कम हुए हैं। एक जमाने में सरस्वती कुमार दीपक, कपिल कुमार तथा बृजेंद्र गौड़ ने बड़ी गंभीरता और लगन से फिल्मों पर लिखा, परंतु कुछ अर्से बाद वे फिल्म जगत के विभिन्न क्षेत्रों में चले गये। कोई गीतकार बन गया, कोई संवाद लेखक, तो कोई निर्माता। स्वाधीनता से पूर्व जिन्होंने फिल्मी पत्रकारिता को प्रतिष्ठा दिलायी, उन पत्रकारों में सर्व श्री लेखराम, ऋषभचरण जैन, करुणा शंकर, नरोत्तम नागर, परशुराम नौटियाल आदि का योगदान बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा है। पुराने पत्रकारों में भी अभी तक सक्रिय हैं, उनके सर्व श्री धर्मपाल गुप्ता, सत्येंद्र श्याम तथा संपतलाल पुरोहत के नाम प्रमुख हैं।
फिल्मी पत्रकारिता आज भी उतना सम्मानित पेशा नहीं बन पाया है जितना होना चाहिए। और तो और स्वयं पत्रकार जगत में इसे सबसे निचले दर्जे की पत्रकारिता माना जाता है। यद्यपि फिल्म देखने की सुविधा, फिल्मी सितारों से मिलने के सुअवसर और दावतों में आमंत्रित होने के आकर्षण के कारण युवा और नौसिखिए पत्रकारों में इसके प्रति बड़ा आग्रह है, परंतु वरिष्ठ पत्रकार, फिल्मी पत्रकारों को समानता का दर्जा देने में झिझकते हैं।
इस स्थिति के लिए जहां पत्रकार जगत का पुरातनपंथी दृष्टिïकोण जिम्मेदार है, वहां कुछ सीमा तक स्वयं फिल्मी पत्रकार और समीक्षक भी उत्तरदायी है। व्यावहारिक रूप से फिल्मी पत्रकार का योगदान किसी भी अन्य पत्रकार से कम नहीं-बल्कि अधिक है। विशेष रूप से सांस्कृतिक क्षेत्र में तो वह सबसे अग्रणी समझा जाना चाहिए। क्योंकि वह उस विद्या का टिप्पणीकार है, समालोचक है, परिचायक है, जिसका समाज पर रेडियो, टेलीविजन और समाचार-पत्र, इन सबसे अधिक प्रभाव है। वह उन रचनाओं पर लिखता है, जिन्हें प्रतिदिन एक करोड़ लोग सिनेमा घरों में देखते हैं। वह उन लोगों को जनता से परिचित कराता है जो इस देश के पांचवें सबसे बड़े उद्योग से संबद्ध हैं। वह उस उद्योग का लेखा-जोखा देता है, जिसमें 200 करोड़ की पूंजी लगी हुई है और जिसके द्वारा कम से कम सवा दो लाख लोग अपनी जीविका उपार्जन करते हैं। जिसके अस्तित्व से सरकार को कम से कम 65 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष मनोरंजन कर के रूप में मिलता है। ऐसे पत्रकार वर्ग तथा पत्रकारिता की उपेक्षा होना निश्चय ही उचित नहीं है।
दिल्ली को यह महत्त्व मिलने का मुख्य कारण है-वितरण और प्रदर्शन का यह प्रमुख केंद्र है। हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र में दिल्ली ही फिल्म-व्यवसाय का सबसे महत्त्वपूर्ण नगर है। फिल्म वितरकों से फिल्मी पत्रिकाओं को लगभग उतना ही सहयोग मिल जाता है, जितना निर्माताओं से मिल पाता। विज्ञापन, ब्लाक्स आदि जुटाने में पत्र-संचालकों को कठिनाई नहीं होती। इस शताब्दी के तीसरे दशक की समाप्ति तक फिल्म-क्षेत्र में अच्छे परिवारों के कई शिक्षित एवं जागरूक लोग पदार्पण कर चुके थे। हिमांशु राय, देवकी बोस, बी.एन. सरकार, मोहन भवनानी, पी.सी. बरुआ, पृथ्वीराज कपूर, जयराज, देविका रानी, दुर्गा खोटे और ईनाक्षी रामाराव के आगमन से जहां सिनेमा का स्वरूप सुधरा, वहां समाज की रुचि भी इसकी ओर आकृष्टï हुई।
1931 में बंबई की इंपीरियल कंपनी ने आलम आरा का निर्माण करके लोगों को चौंका दिया। सिनेमा के गूंगे कलाकार बोलने लगे और गाने लगे। इस जादू को देखकर पढ़े-लिखे समाज पर भी सिनेमा का जादू चल गया। लोगों में फिल्मों के बारे में, उनमें कार्य करने वालों के विषय में जानने की उत्सुकता जागृत हुई। इसको दिल्ली के कुछ जागरूक लोगों ने अनुभव करके ही 1932 में दिल्ली से रंगभूमि का प्रकाशन किया। हिंदी की इस प्रथम फिल्मी पत्रिका के संपादक श्री लेखराम थे। यह साप्ताहिक थी और इसका मूल्य दो पैसे था। (श्री रामचंद्र तिवारी अपने शोध प्रबंध स्वाधीनता के बाद हिंदी पत्रिकाओं का विकास में लिखते हैं-फिल्मों संबंधी हिंदी की पहली पत्रिका होने का गौरव नव चित्रपट को प्राप्त है, जो 1932 में दिल्ली से निकली थी। इसी ग्रंथ के लेख मध्यभारत की हिंदी पत्रकारिता में राजकुमार जैन ने कहा है कि 1931 में इंदौर से प्रकाशित मंच हिंदी की पहली फिल्म पत्रिका है।)
दो रंगे मुख्यपृष्ठ वाली रंभभूमि के आवरण पर किसी अभिनेत्री का चित्र होता था। भीतर फिल्म समाचार, निर्माणाधीन फिल्मों का विवरण, समीक्षा, फिल्म बनाने वालों का परिचय, नयी फिल्मों के गीत के अतिरिक्त कहानियां, कविताएं तथा शेरोशायरी भी हुआ करती थी।
1936 तक रंगभूमि अकेली निकलती रही। 1936 में हिंदी के जाने-माने साहित्यकार श्री ऋषभचरण जैन ने दिल्ली से ही एक और फिल्मी साप्ताहिक आरंभ किया। इसका नाम था चित्रपट। रूपरेखा लगभग इसकी भी वही थी परंतु कलेवर में यह रंगभूमि से अधिक गंभीर थी। दूसरे, ऋषभजी के कारण इसे कई समकालीन साहित्यकारों का भी सहयोग प्राप्त हुआ। सर्वश्री जैनेंद्रकुमार जेन, मुंशी प्रेमचंद, बेचन शर्मा उग्र, नरोत्तम व्यास, विशंभर नाथ शर्मा कौशिक आदि ने चित्रपट के लिए लिखा। इस पत्रिका ने धारावाहिक उपन्यास प्रकाशित करने की परंपरा भी डाली। स्वयं श्री ऋषभचरण जैन के कई चर्चित उपन्यास पहले चित्रपट में ही प्रकाशित हुए।
रंगभूमि चित्रपट से टक्कर न ले सकी। फलस्वरूप कुछ वर्ष चलकर उसका प्रकाशन रुक गया। 1941 में श्री धर्मपाल गुप्ता ने रंगभूमि का पुन: प्रकाशन आरंभ किया। आज भी रंगभूमि उन्हीं के संपादन में निकल रही है। धर्मपालजी ने रंगभूमि मासिक के रूप में आरंभ की। साप्ताहिक रंगभूमि का आकार 18&22 का चौथाई था और वह सफेद कागज पर निकलती थी। मासिक रंगभूमि निकली तो इतावली आर्ट पेपर पर, परंतु उसका आकार पहले से आधा हो गया। मुखपृष्टï पर तिरंगा चित्र होता था। भीतर भी दो रंगीन चित्र दिये जाते। अब इसका मूल्य चार आने हो गया था। फिल्मों का प्रभाव दिनों दिन बढ़ रहा था। रंगभूमि और चित्रपट के अतिरिक्त अंग्रेजी में बंबई की फिल्म इंडिया और टाकी हैरल्ड, कलकत्ता से प्रकाशित दीपाली, दिल्ली से छपने वाली रूपवानी तथा लाहौर से निकलने वाली फिल्म पिक्टोरियल और स्क्रीन वल्र्ड नामक अंग्रेजी पत्रिकाओं ने हिंदी प्रकाशकों को भी फिल्मी पत्रिकाएं निकालने की प्रेरणा प्रदान की। फलस्वरूप हिंदी में भी कई पत्रिकाएं निकलीं। विश्वयुद्ध के दिनों में जिन फिल्मी पत्रिकाओं की चर्चा रही वे थीं रसभरी, चित्र प्रकाश, कौमुदी जो दिल्ली से प्रकाशित हो रही थीं, अभिनय जो कलकत्ता से प्रकाशित हो रही थी और रूपम जो लाहौर से छप रही थी।
1947 में लाहौर पाकिस्तान में चला गया। फलस्वरूप वहां के कई वरिष्ठ पत्रकार भारत आ गये। इनमें कुछ बंबई चले गये तो कुछ ने दिल्ली में ही अपने पुराने पत्रों को प्रकाशित करना आरंभ किया। चित्रपट के एक भूतपूर्व संपादक श्री संपतलाल पुरोहित ने 1947 में युग छाया का प्रकाशन आरंभ किया। उन्हीं दिनों श्री ब्रजमोहन ने फिल्म चित्र निकाली, पर यह पत्रिका फिल्मी कम और राजनीतिक अधिक थी। 1948 में श्री राज केसरी ने चित्रलेखा का प्रकाशन आरंभ किया।
1948 में प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक श्री ख्वाजा अहमद अब्बास ने बंबई से हिंदी मासिक सरगम आरंभ किया। सरगम का प्रथम भाग साहित्यिक होता था तथा द्वितीय भाग में फिल्मी सामग्री दी जाती थी। सरगम ने बड़ी अच्छी प्रकाशित की। उर्दू के अनेक जाने-माने साहित्यकारों ने इसे सहयोग दिया। परंतु डेढ़-दो वर्ष चलकर यह सुंदर पत्रिका बंद हो गयी। इन्हीं दिनों राजधानी से चित्रकार नामक एक साप्ताहिक निकला। अपने बड़े आकार के कारण इस साप्ताहिक की कुछ दिन तो धाक जमी परंतु अंत में यह भी बंद हो गया। 1950 के आसपास हिंदी में और भी कई फिल्म-प्रकाशित हुईं, इनमें कल्पना (संपादक : बच्चन श्रीवास्तव), शबनम (संपादक : देवेंद्र कुमार) तथा अनुपम (संपादक : राज चोपड़ा) बंद तो जल्दी हो गयीं परंतु अचछी सामग्री और आकर्षक साज-सज्जा के कारण बहुत समय तक याद हो गयीं।
आरंभ में फिल्मी पत्रिकाओं की प्रसार-संख्या पांच सौ से दो हजार तक होती थी। तीन-चार हजार प्रतियां छापना प्रतिष्ठा की बात समझी जाती थी। साथ ही यह भी माना जाता था कि हिंदी का फिल्मी पाठक वर्ग इससे अधिक बड़ा नहीं है। यही कारण है कि तब तक पत्रिका-प्रकाशक बजाय पाठकों के, फिल्म जगत पर विशेष रूप से उसके विज्ञापनों पर अधिक निर्भर रहते थे। फिल्मी पत्रिकाओं की पाठक-संख्या बहुत व्यापक हो सकती है, यह सत्य पहली बार प्रकाशकों को तब ज्ञात हुआ जब रंगभूमि ने फिल्मी ड्रामा नामक एक नया स्तंभ आरंभ किया। इस स्तंभ के अंतर्गत प्रदर्शित फिल्मों की संक्षिप्त कथा, संवादों और गीतों सहित दी जाने लगी।
आरंभ में रंगभूमि ने बाजार से दो आने का पुस्तक रूप में प्रकाशित ड्रामा लेकर उसे पत्रिका में छापना शुरू किया। यह टोटका-चमत्कार साबित हुआ। रंगभूमि की बिक्री शीघ्रता से बढऩे लगी। जब अन्य फिल्मी-पत्रिकाओं को यह रहस्य मालूम हुआ तो उन्होंने भी ड्रामे देने आरंभ कर दिये।
ड्रामों की प्रतिस्पद्र्धा बढ़ी। कुछ संपादकों ने नये से नये फिल्मों के ड्रामे विशेष रूप से लिखवाये। कुछ लोगों ने रजतपट से देखकर ड्रामे लिखने में कुशलता प्राप्त की। ये लेखक बाहर भी भेजे जाने लगे। मदर इंडिया जैसी फिल्मों के ड्रामे लिखने के लिए लेखक बंबई तक भेजे गये। दो आने की चीज की कीमत अब तीस रुपये तक पहुंच गयी। आरंभ में रंगभूमि ने एक ड्रामा दिया। मुकाबले में दूसरे ने दो-दो और तीन-तीन ड्रामे दिये। छायाकार और प्रिया जैसी पत्रिकाओं में मुख्य आकर्षण फिल्मी ड्रामे ही थे।
हिंदी की बढ़ती हुई पाठक संख्या और उर्दू के घटते प्रभाव के कारण उर्दू ही दो प्रमुख फिल्मी पत्रिकाओं ने अपने हिंदी संस्करण आरंभ किये। 1958 में लोकप्रिय उर्दू मासिक शमा ने हिंदी में सुषमा का प्रकाशन आरंभ किया। इसके प्रथम संपादक श्री करुणा शंकर थे। उर्दू साप्ताहिक चित्रा ने भी 1963 में हिंदी में चित्रा का एक हिंदी मासिक संस्करण शुरू कर दिया। फिल्मी दुनिया (संपादक : नरेंद्र कुमार) विगत कई वर्षों से हिंदी का सबसे अधिक बिकने वाला फिल्मी मासिक माना जाता है। इसका प्रकाशन 1958 में आरंभ हुआ था। इसकी प्रसार संख्या 90 हजार प्रतियों तक पहुंच चुकी है।
हिंदी की सबसे अधिक बिकने वाली फिल्मी पत्रिका आज भी माधुरी ही है। सच तो यह है कि फिल्मी पत्रकारिता के इतिहास में माधुरी का प्रकाशन एक शिलालेख के रूप में वर्णित होगा। कारण, टाइम्स ऑफ इंडिया के इस पाक्षिक प्रकाशन ने जहां एक स्वस्थ फिल्म-पत्रिका की परंपरा को सशक्त किया, वहां एक उच्चस्तरीय फिल्म प्रकाशन का आदर्श भी स्थापित किया। 1963 में माधुरी का प्रकाशन श्री अरविंद कुमार के संपादन में आरंभ हुआ। शुरू में इसका आकार फिल्मफेयर जितना था और नाम था सुचित्रा। सुचित्रा के अभी कुछ ही अंक निकले थे कि दिल्ली के एक उर्दू साप्ताहिक ने नाम पर आपत्ति उठाकर दावा कर दिया। इस दावे के फलस्वरूप सुचित्रा का नाम माधुरी कर दिया गया। हालांकि बाद में माधुरी के प्रकाशक मुकदमा जीत गये, पर इस बीच एक नया नाम इतना लोकप्रिय हो चुका था माधुरी को पुन: सुचित्रा बनाने की आवश्यकता ही नहीं रही।
फिल्मी पत्रिकाओं की बढ़ती हुई बिक्री से प्रेरित होकर इस क्षेत्र में नये-नये प्रकाशक आये। 1962 में राधिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। 1965 में दिल्ली से फिल्मी कलियां शुरू हुई। कुछ ही दिनों बाद मेनमा शुरू हुई। इससे कुछ अर्से बाद फिल्म रेखा, फिल्मांजली और फिल्मलता का प्रकाशन आरंभ हो गया।
1973 में राजधानी से श्री अनिल नरेंद्र के संपादन में पालकी का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसमें फिल्म एवं महिला जगत की मिली-जुली सामग्री दी गयी। 1975 के आरंभ में बंबई से सिनेमा संबंधी एक और नयी पत्रिका निकली रजनीगंधा। इस मासिक पत्रिका के संपादक श्री त्यागी है। इसी वर्ष के मध्य में इंडियन एक्सप्रेस ने दिल्ली से एक साप्ताहिक प्रकाशन आरंभ किया है आसपास। श्री प्रभाष जोशी के संपादन में निकल रहे इस सांस्कृतिक साप्ताहिक में फिल्मों पर काफी सामग्री दी जाती है।
आरंभ में फिल्मी पत्रिकाओं में फिल्मों के समाचार, समीक्षाएं, कलाकारों आदि के परिचय और भेंट-वार्ताएं, फिल्मी कहानियां और फिल्मी गीत आदि दिये जाते थे। यह सामग्री सामान्यत: सही और खरी होती थी। परंतु विगत कुछ वर्षों से अंग्रेजी की कुछ फिल्मी पत्रिकाओं को मिली सफलता ने अफवाहबाजी और गपशप को इतना अधिक बढ़ावा दिया कि हिंदी की फिल्मी पत्रकारिता भी उसके प्रभाव से अपनी रक्षा न कर सकी।
यों इस तरह की चटपटी और चुभने वाली सामग्री फिल्म इंडिया अपने लोकप्रिय स्तंभ बांबे कालिंग से विगत चालीस वर्ष से दे रहा था, परंतु उसका कुछ आधार होता था। केवल कल्पना की उड़ान का सहारा नहीं लिया जाता था। उर्दू में भी इस तरह की सामग्री प्रकाशित करने की परंपरा रही। शमा का कच्चा चिट्ठा स्तंभ इस तरह की सामग्री के लिए कई वर्ष प्रसिद्ध रहा और कई बार इसके कारण उसे कचहरी तक भी जाना पड़ा।
परंतु हिंदी की फिल्मी पत्रिकाएं इस तरह की सामग्री नहीं दिया करती थीं। कुछ पत्रिकाओं में जुहू तट से, चोर दाढ़ी तिनके, राम जाने, मानो न मानो तिहारी मरजी, पर्दे के पीछे जैसे स्तंभ निकलते थे। पर इनमें या तो व्यक्तियों के नाम संकेत रूप में दिये जाते थे या फिर बात हलकी चुटकी तक सीमित रहती थी। परंतु अंग्रेजी की इन नयी मासिक पत्रिकाओं ने शालीनता की समस्त सीमाएं त्याग दीं। ऐसी-ऐसी सामग्री दी कि पढऩे वाले दंग रह गये। उधर इन पत्रिकाओं की बढ़ती हुई बिक्री ने हिंदी पत्रिकाओं के प्रकाशकों पर भी प्रभाव डाला। परिणाम यह हुआ कि माधुरी को छोड़, प्राय: सभी ने सनसनीपूर्ण सामग्री देनी आरंभ कर दी। रोमांस तलाक की बात छोडि़ए, गर्भपात तक के चर्चे खुले आम होने लगे। गंभीर एवं विवेचनात्मक लेखों का प्रकाशन नहीं के बराबर रह गया।
देखते-देखते बात इतनी बढ़ गयी कि 1974 में फिल्म उद्योग ने इस तरह की पत्रकारिता को रोकने के लिए कुछ प्रयास किये। परंतु उसके ठोस परिणाम नहीं निकले। 1975 के मध्य आपात्कालीन स्थिति लागू हुई। नये सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल आये तो उन्होंने इस तरह की आपत्तिजनक पत्रकारिता पर रोक लगाने का आग्रह किया। फलस्वरूप अगस्त 75 में बंबई के कुछ फिल्मी संपादकों ने मिलकर फिल्म सेंसर बोर्ड के प्रधान के सहयोग से एक आचार संहिता तैयार की। इसमें पत्रकारों की लेखन स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी यह आग्रह किया गया कि ऐसी सामग्री प्रकाशित न की जाये जिसमें फिल्मवालों का चरित्र हनन हो अथवा उनके व्यक्तिगत संबंध बिगड़ें। इस आचार संहिता का किसी सीमा तक पालन होगा, यह भविष्य ही बता सकेगा। फिल्मी पत्रिकाओं में महत्त्वपूर्ण पत्रिका जिसने आरंभ से ही फिल्म समीक्षा को महत्त्व दिया, वह है सरिता। सरिता ने ही श्रेष्ठता के आधार पर फिल्मों के वर्गीकरण की परिपाटी आरंभ की। साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग ने भी सिनेमा को गंभीरता से लिया। यही कारण है कि इन दोनों ही साप्ताहिकों ने नियमित रूप से न केवल फिल्म संबंधी सामग्री दी अपितु उच्चस्तर की सामग्री भी उपलब्ध करायी।
दैनिक पत्रों ने आरंभ में सिनेमा के प्रति उपेक्षा बरती। इसका कारण था। स्वाधीनता से पूर्व हिंदी के प्राय: सभी दैनिक स्वाधीनता आंदोलन को सक्रिय सहयोग दे रहे थे। वैसे भी तब तक शिक्षित एवं बुद्धिजीवी वर्ग फिल्मों और फिल्म वालों को हेय दृष्टिï से देखता था। हिंदी के साहित्यिक वर्ग की दृष्टिï में सिनेमा घटिया मनोरंजन का साधन था। प्रत्यक्ष रूप में भारतीय फिल्में राष्टï्रीय आंदोलन में कई सहयोग नहीं दे पा रही थीं। फिल्म बनाने वालों के लिए ऐसा कर पाना संभव भी नहीं था। विदेशी सेंसर बोर्ड के होते हुए, जब फिल्मों के नाम बम और महात्मा तक रखना अपराध था, सिनेमा के पर्दे पर महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के चित्र तक दिखाना गैर कानूनी था, तब भला फिल्मों में प्रत्यक्ष रूप से देश की आजादी की बात कर पाना कैसे संभव हो सकता था। इस सत्य के बावजूद प्रत्यक्ष रूप से सिनेमा ने जनजागरण में, अपनी भूमिका अदा की। अमर ज्योति, वहां, बरांडी की बोतल, पड़ोसी, जमींदार, अपना घर, जमीन, सिकंदर, रामशास्त्री, नया तराना आदि वे फिल्में थीं, जिन्होंने दर्शकों में देश के प्रति प्यार जागृत किया और देखने वालों को सांप्रदायिक एकता, अन्याय का विरोध तथा भारतीयता के प्रति श्रद्धा रखने की प्रेरणा प्रदान की।
स्वाधीनता से पूर्व बंबई तथा कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक तो थोड़ी बहुत फिल्म सामग्री देते थे परंतु हिंदी में विश्वमित्र को छोड़कर अन्य किसी भी प्रमुख दैनिक में फिल्में की चर्चा नहीं होती थी। राष्टï्रीय दैनिक पत्रों का रवैया बदला नवभारत टाइम्स के प्रकाशन से। नवभारत टाइम्स ने लगभग आरंभ से ही साप्ताहिक फिल्मी स्तंभ दिया। दैनिक हिंदुस्तान ने आरंभ में थोड़ी सामग्री दी, बाद में नियमित रूप से सप्ताह में एक बार एक पृष्ठ फिल्मों पर देना आरंभ किया। उधर राष्टï्रीय दैनिकों के स्वरूप में आये इस परिवर्तन के फलस्वरूप आज, नवजीवन, स्वतंत्र भारत, नवभारत, नई दुनिया आदि अन्य दैनिकों ने भी फिल्मों और फिल्म वालों पर नियमित रूप से टिप्पणियां प्रकाशित करनी शुरू की।
इस परिवर्तित दृष्टिïकोण के कई कारण थे। एक तो हिंदी का पाठक अब उस विद्या के विषय में आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने को उत्सुक था जो उनके मनोरंजन का सर्वप्रिय साधन थी। दूसरे, स्वाधीन भारत में राष्टï्र के नव-निर्माण में सिनेमा ने अपनी भूमिका अदा करनी शुरू कर दी थी। तीसरे, राष्टï्रीय सरकार भी अब सिनेमा के विकास के प्रति प्रयत्नशील थी। 1951 की फिल्म जांच-पड़ताल समिति, 1954 में राष्टï्रीय फिल्म पुरस्कारों की स्थापना आदि ने प्रबुद्ध एवं शिक्षित समाज के दृष्टिïकोण को बदला था और यही दवा का बदलता हुआ रुख दैनिक पत्रों में अभिव्यक्ति पाने लगा। इस समय यों तो सभी प्रमुख हिंदी दैनिक फिल्मों पर नियमित सामग्री प्रकाशित कर रहे हैं, परंतु विगत कुछ वर्षों से पंजाब के कुछ हिंदी दैनिकों ने फिल्मी सामग्री प्रकाशित करने में देश के अन्य सभी दैनिकों से बाजी मार ली है। पंजाब केसरी, वीर प्रताप तथा हिंदी मिलाप सप्ताह में एक बार नियमित रूप से फिल्म संस्करण प्रकाशित करते हैं। उस दिन उनके मुखपृष्ठ पर अथवा अंतिम पृष्ठ पर फिल्म कलाकारों के रंगीन चित्र होते हैं। उस दिन फिल्म कलाकारों को प्रमुखता प्रदान की जाती है तथा कम से कम दो पृष्ठ सिनेमा संबंधी सामग्री से भरे होते हैं।
फिल्मी पत्रकारों के इस समय देश में कई संगठन है। इनमें सबसे पुराना है कलकत्ते का बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसियेशन। करीब बीस वर्ष हुए, बंबई के फिल्मी पत्रकारों एवं समीक्षकों ने बांबे फिल्म जर्नलिस्ट्स एसोसियेशन स्थापित किया। इस संगठन ने बंगाल के संगठन के समान कलाकारों और फिल्मों को पुरस्कृत करना भी आरंभ किया, परंतु कुछ ही वर्षों में इसमें पत्रकारों का एक वर्ग पृथक हो गया। इन अलग हुए लोगों ने फिल्म क्रिटिक्स क्लब बनाया। परंतु समय के साथ-साथ यह संगठन भी निष्क्रिय हो गया। दूसरे अंतरराष्टï्रीय फिल्म समारोह के दौरान राजधानी के फिल्मी पत्रकारों को समारोह कवर करने में जब कठिनाई हुई तो उन्होंने भी अपने को संगठित करने का निर्णय किया। 1962 में दिल्ली में फिल्म क्रिटिक्स एसोसियेशन की स्थापना हुई, तब से यह संगठन अभी तक सक्रिय है।
1973 में बंबई के फिल्म पत्रकारों ने एक बार पुन: अपना संगठन बनाया। अब की बार इसका नाम रखा गया फिल्म जर्नलिस्ट सोसायटी। यह संस्था काफी कुछ कार्य कर रही है। लखनऊ, कलकत्ता, बंबई, दिल्ली तथा हैदराबाद आदि में जितने भी पत्रकार संगठन हैं उनमें सभी भाषाओं के फिल्म पत्रकारों और समीक्षकों को सदस्यता प्रदान की गयी है। भाषा के आधार पर न तो अंग्रेजी के फिल्मी पत्रकारों का कोई संगठन है और न हिंदी के फिल्मी पत्रकारों का।
इन दिनों में कुल मिलाकर हिंदी में करीब 75 फिल्मी पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। छोटी-बड़ी सब मिलाकर कम से कम तीन दर्जन फिल्मी पत्रिकाएं तो अकेले दिल्ली से प्रकाशित होती हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से प्रकाशित होने वाली कुछ फिल्मी पत्रिकाओं के नाम इस प्रकार हैं - चित्र भारती मासिक (कलकत्ता, 1955), सिने चित्रा साप्ताहिक (कलकत्ता, 1955), सिने वाणी सा. (बंबई, 1956), कला संसार सा. (कलकत्ता 1957), सिने सितारा मा. (कलकत्ता, 1957), रजत पट पाक्षिक (महू छावनी, 1957), रसभरी मा. (दिल्ली), फिल्मिस्तान मा. (फिरोजपुर, 1958), फिल्म किरण मा. (जबलपुर, 1959), चित्र छाया मा. (दिल्ली, 1959), इंदुमती मा. (दिल्ली, 1959), सिने एक्सप्रेस सा. (इंदौर, 1959), चित्रावली सा. (बंबई, 1959), प्रीत मा. (जोधपुर, 1959), नीलम मा. (दिल्ली, 1960), मधुबाला मा. (दिल्ली, 1960), मनोरंजन मा. (दिल्ली, 1962), रस नटराज सा. (बंबई, 1963), कजरा मा. (कानपुर, 1964), फिल्म अप्सरा मा. (दिल्ली, 1964), बबीता मा. (दिल्ली, 1967), सिने पोस्ट मा. (दिल्ली, 1968), फिल्म रेखा मा. (दिल्ली, 1968), फिल्मी कलियां मो. (दिल्ली, 1968), फिल्मांकन सा. (बंबई, 1969), सिने हलचल पा. (अजमेर, 1969), अभिनेत्री पा. (लुधियाना, 1970), फिल्म शृंगार मा. (दिल्ली, 1970), फिल्मी परियां मा. (लखनऊ, 1970), फिल्म संसार मा. (मेरठ, 1970), फिल्मी कमल मा. (मेरठ, 1970), फिल्म अभिनेत्री मा. (मेरठ, 1970), पूनम की रात सा. (जबलपुर, 1970), चित्र किरण सा. (बंबई, 1970), सिने हलचल मा. (दिल्ली, 1971)।
हिंदी के प्रमुख साप्ताहिक फिल्मी पत्रों में दिल्ली से प्रकाशित आसपास बंबई, से प्रकाशित उर्जशी, कलकत्ता से प्रकाशित स्क्रीन हैं। पाक्षिक केवल एक ही निकलती है, माधुरी। मासिक पत्रिकाओं में फिल्मी दुनिया, सुषमा, पालकी, फिल्मी कलियां, रंग भूमि तथा चित्रलेखा, राजधानी से प्रकाशित होती हैं और रजनी गंधा बंबई में। इन फिल्मी पत्रिकाओं के अतिरिक्त मेनका, युग छाया, नव चित्र पट, राधिका, फिलमांजलि, छायाकार, प्रिया भी नियमपूर्वक प्रकाशित हो रही हैं। माधुरी को छोड़ शेष सभी फिल्मी पत्रिकाएं कथा-साहित्य प्रकाशित करती हैं। पालकी और आसपास में अच्छी फिल्मी सामग्री के अतिरिक्त अन्य कई विषयों पर भी सामग्री दी जाती है। फिल्मों का प्रभाव फिल्मी पत्रिकाओं पर भी पड़ा है। तभी तो आज जिस प्रकार साधारण श्वेत श्याम फिल्मों का युग नहीं रहा, उसी प्रकार फिल्मी पत्रिकाओं के लिए बिना रंगीन सामग्री दिये अपना अस्तित्व बनाये रखना असंभव हो रहा है।
क्या फिल्म-उद्योग वाले फिल्मी पत्रिकाओं पर हावी हैं? क्या उनके विज्ञापन का समीक्षाओं पर प्रभाव पड़ता है? क्या पत्र-पत्रिकाओं में हुई आलोचनाओं को फिल्म बनाने वाले गंभीरता से लेते हैं। जहां तक हावी होने का प्रश्न है फिल्म उद्योग का फिल्म पत्रों पर कोई प्रभाव नहीं। विज्ञापन का असर भी केवल उन पत्रों पर पड़ता है, जिनकी बिक्री सीमित है और जो केवल विज्ञापनों के बल पर पत्रिका प्रकाशित करते हैं। जो फिल्मी पत्रिकाएं, चाहे वे हिंदी की हों अथवा किसी अन्य भाषा की, अपने पाठकों के बल पर प्रकाशित होती हैं, वे विज्ञापन के प्रभाव से सर्वथा मुक्त हैं। रही फिल्म वालों पर प्रभाव की बात, तो कहने को तो वे कहते हैं कि स्वस्थ आलोचना का वे स्वागत करते हैं परंतु वास्तविकता यह है कि वे इनकी अधिक परवाह नहीं करते। उन पर न फिल्म-समीक्षाओं का प्रभाव पड़ता है, न संपादकीय टिप्पणियों का। यदि पड़ता तो सिनेमा का स्वरूप इतना विकृत न होता और सामाजिक दायित्व के प्रति फिल्म वाले इतनी उपेक्षा न दर्शाते।
जिस तरह भारतीय फिल्म फार्मूले में फंसी हुई है, लगभग वही स्थिति फिल्मी पत्रकारिता की बन गयी है-विशेष रूप से हिंदी में। हिंदी फिल्मों की तरह हिंदी की फिल्मी पत्रकारिता का रूप भी लगभग निश्चित ही है। कुछ रंगीन चित्र, चार-पांच चटपटे लेख, फिल्म की कहानी या फिल्मी ड्रामा, प्रश्न-उत्तर का स्तंभ, कुछ फिल्मी समाचार और कुछ किस्से कहानियां। एक संपादकीय और एक पृष्टï पाठकों के पत्र का, जिसमें केवल स्तुति पत्रों को प्रमुखता मिलती है। फिल्मी पत्रिका का प्रकाशन कल तक सबसे सहज माना जाता है। अन्य किसी भी विषय पर पत्रिका प्रकाशित करने के लिए ऐसे संपादक की आवश्यकता होती है, जिसे उस विषय का ज्ञान हो। परंतु फिल्मी पत्रिका के लिए ऐसे किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं। पत्रिकाओं का कलेवर निश्चित है। आकार निर्धारित हैं। बस, वितरकों से रंगीन ब्लाक किये, कुछ नये-पुराने लेख जमा किये और पत्रिका का प्रकाशन शुरू।
इधर कुछ वर्ष से स्थिति बदली है। उच्च स्तर की पत्रिकाओं ने प्रकाशकों को यह स्वीकारने पर विवश किया है कि फिल्मी पत्रकारिता के लिए भी आवश्यक ज्ञान अनिवार्य है। और उसी का यह परिणाम है कि अब फिल्मी पत्रकारों को हिंदी की गिनी-चुनी पत्रिकाएं उपयुक्त पारिश्रमिक भी देने लगी हैं। यह तो कटु सत्य, पर है यथार्थ कि कुछ गिने-चुने पत्रकारों को छोड़कर, सामान्य हिंदी फिल्मी पत्रकार का स्तर बहुत नीचा है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि फिल्मों और फिल्मी सितारों में रुचि रखने वाला हर युवक कलम उठाने को तत्पर हो जाता है और किसी परिचित की फिल्म पत्रिका मिलते ही लिखना शुरू कर देता है। फिल्मों और फिल्म वालों पर लिखने वाले अधिकांश लेखकों को विश्व-सिनेमा तो दूर, भारतीय सिनेमा के इतिहास का भी ज्ञान नहीं होता। संसार के अन्य देशों में सिनेमा के संदर्भ में कौन-कौन सी धाराएं कब चलीं, इसका अध्ययन करना तो बड़ी बता है, उन्हें इस देश के प्रादेशिक सिनेमा तक की जानकारी नहीं होती।
एक जागरूक सिने समीक्षक को फिल्म इतिहास के साथ-साथ साहित्य, कला, संगीत, चित्रकारी, जनजीवन, नाटक आदि का भी अच्छा ज्ञान होना चाहिए। बिना इस पृष्ठभूमि के वह न तो सही मूल्यांकन कर पायगा और न अपने पाठकों को उचित दिशा-निर्देश दे सकेगा। फिल्म-निर्माण कसे होता है-इसका ज्ञान होना भी अनिवार्य है। उसे कथा और पटकथा का अंतर पता होना चाहिए। उसे ज्ञात होना चाहिए कि इनडोर और आउटडोर शूटिंग में कितना फर्क है। क्लोज अप और लांग शाट किसे कहते हैं। बैंक प्रोजेक्शन तथा सुपर इंपोजीशन की क्या उपयोगिता है। भारतीय भाषाओं में बन रही फिल्मों की तथा फिल्म बनाने वालों की आर्थिक स्थिति, कलात्मक रुझान, पृष्टïभूमि आदि की आवश्यक जानकारी होनी चाहिए। इतना कुछ ज्ञात होने पर ही अच्छे फिल्मी समीक्षक होने की अपेक्षा की जा सकती है। इतना कुछ ज्ञात होने पर ही अच्छे फिल्मी समीक्षक होने की अपेक्षा की जा सकती है। पर कितने ही फिल्मी पत्रकार और समीक्षक हैं, जो इस ज्ञान में लगभग कोरे हैं। उनका फिल्म ज्ञान केवल कुछ फिल्मी पत्रिकाओं तक ही सीमित है। वे कलाकारों से बिना मिले उनकी भेंटवार्ताएं तक तैयार कर लेते हैं। हिंदी का यह दुर्भाग्य है कि जिन दैनिकों में फिल्मी सामग्री प्रकाशित होती है, उनमें से अधिकांश में यही स्तंभ सबसे अधिक उपेक्षित रहता है।
विभिन्न देशों की फिल्मी पत्रिकाओं से भारत की प्रमुख सिने पत्रिकाओं की तुलना करें तो हम यह सगर्व कह सकते हैं कि संस्था की ही दृष्टिï से नहीं, आकार, कलेवर और साज-सज्जा के आधार पर भी भारत की प्रमुख फिल्मी पत्रिकाओं को विश्व के श्रेष्ठतम फिल्मी पात्रों के समकक्ष रखा जा सकता है। अंग्रेजी फिल्म पत्रों जैसे फिल्मफेयर, स्टार एंड स्टाइल, स्टारडस्ट, फिल्म वल्र्ड तथा सिने-ब्लिट्ज की अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन या किसी भी अन्य देश की प्रमुख फिल्म पत्रिकाओं से तुलना कर सकते हैं। ये भारतीय फिल्म पत्रिकाएं अमेरिका के स्क्रीन वल्र्ड, मोशन पिक्चर्स ब्रिटेन की फिल्म एंड टीवी न्यूज रूस के सोवियत फिल्म तथा पोलेंड के फिल्म पोलांसकी जैसी संसार-प्रसिद्ध फिल्मी पत्रिकाओं से किसी भी तरह पीछे नहीं। केवल अंग्रेजी ही की क्यों, हिंदी की माधुरी, तमिल की बोंबाई तथा बंगला की आनंदलोक को संसार की श्रेष्ठतम फिल्मी पत्रिकाओं के बीच स्थान मिल सकता है।
हां, अभी भी भारत में शुद्ध गंभीर फिल्म पत्रिका नियमित रूप से प्रकाशित नहीं हो पायी है। फिल्म कलचर और फिल्म फोरम जैसी फिल्मी पत्रिकाएं जिनमें सिनेमा के विभिन्न पक्षों का गंभीर विवेचन किया गया था, समय-समय पर प्रकाशित तो हुईं परंतु किसी का भी जीवन छह अंक से आगे नहीं बढ़ सका। इस दृष्टिï से ब्रिटेन से प्रकाशित साइट एंड साउंड तथा फिल्म एंड फिल्ंिमग ने विभिन्न देशों के फिल्मकर्मियों और सिनेमा के गंभीर छात्रों को जो ज्ञान प्रदान किया है, उसकी कमी इस देश में अवश्य खटकती है।
भारतीय फिल्म पत्रकारों में सर्व श्री बाबूराव पटेल, क्लेयर मंडोसा, एल.पी. राव, बकुलेश, डी.पी. बेरी तथा एम.एल. पराशर को नहीं भुलाया जा सकता। इन पुराने पत्रकारों के अतिरिक्त सर्व श्री वी.पी. साठे, अजीतप्रसाद जैन, हाफिजी, कमला मनकेकर तथा प्रमिला कल्हन ने भी अपने-अपने समय में फिल्म पत्रकारिता अथवा सिने समीक्षा को निखारने और संवारने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। हिंदी में निश्चय ही जागरूक, ईमानदार एवं फिल्म-विद्या का अच्छा ज्ञान रखने वाले पत्रकार कम हुए हैं। एक जमाने में सरस्वती कुमार दीपक, कपिल कुमार तथा बृजेंद्र गौड़ ने बड़ी गंभीरता और लगन से फिल्मों पर लिखा, परंतु कुछ अर्से बाद वे फिल्म जगत के विभिन्न क्षेत्रों में चले गये। कोई गीतकार बन गया, कोई संवाद लेखक, तो कोई निर्माता। स्वाधीनता से पूर्व जिन्होंने फिल्मी पत्रकारिता को प्रतिष्ठा दिलायी, उन पत्रकारों में सर्व श्री लेखराम, ऋषभचरण जैन, करुणा शंकर, नरोत्तम नागर, परशुराम नौटियाल आदि का योगदान बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा है। पुराने पत्रकारों में भी अभी तक सक्रिय हैं, उनके सर्व श्री धर्मपाल गुप्ता, सत्येंद्र श्याम तथा संपतलाल पुरोहत के नाम प्रमुख हैं।
फिल्मी पत्रकारिता आज भी उतना सम्मानित पेशा नहीं बन पाया है जितना होना चाहिए। और तो और स्वयं पत्रकार जगत में इसे सबसे निचले दर्जे की पत्रकारिता माना जाता है। यद्यपि फिल्म देखने की सुविधा, फिल्मी सितारों से मिलने के सुअवसर और दावतों में आमंत्रित होने के आकर्षण के कारण युवा और नौसिखिए पत्रकारों में इसके प्रति बड़ा आग्रह है, परंतु वरिष्ठ पत्रकार, फिल्मी पत्रकारों को समानता का दर्जा देने में झिझकते हैं।
इस स्थिति के लिए जहां पत्रकार जगत का पुरातनपंथी दृष्टिïकोण जिम्मेदार है, वहां कुछ सीमा तक स्वयं फिल्मी पत्रकार और समीक्षक भी उत्तरदायी है। व्यावहारिक रूप से फिल्मी पत्रकार का योगदान किसी भी अन्य पत्रकार से कम नहीं-बल्कि अधिक है। विशेष रूप से सांस्कृतिक क्षेत्र में तो वह सबसे अग्रणी समझा जाना चाहिए। क्योंकि वह उस विद्या का टिप्पणीकार है, समालोचक है, परिचायक है, जिसका समाज पर रेडियो, टेलीविजन और समाचार-पत्र, इन सबसे अधिक प्रभाव है। वह उन रचनाओं पर लिखता है, जिन्हें प्रतिदिन एक करोड़ लोग सिनेमा घरों में देखते हैं। वह उन लोगों को जनता से परिचित कराता है जो इस देश के पांचवें सबसे बड़े उद्योग से संबद्ध हैं। वह उस उद्योग का लेखा-जोखा देता है, जिसमें 200 करोड़ की पूंजी लगी हुई है और जिसके द्वारा कम से कम सवा दो लाख लोग अपनी जीविका उपार्जन करते हैं। जिसके अस्तित्व से सरकार को कम से कम 65 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष मनोरंजन कर के रूप में मिलता है। ऐसे पत्रकार वर्ग तथा पत्रकारिता की उपेक्षा होना निश्चय ही उचित नहीं है।
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