अयं निज: परो वैति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
-'संकुचित हृदयवालों की यही भावना होती है कि यह मेरा है और यह दूसरे का, पर उदार चरित्र वाले व्यक्तियों के लिए सारी वसुधा ही अपना कुटुम्ब बन जाती है।'
यह मनुष्य की ममता है, जो उसे छोटा बना देती है। कहा भी तो है- 'ममता बुरी बलाय'। यह सही है कि ममता के द्वारा माता-पिता अपनी सन्तानों के परिपालन की प्रेरणा पाते हैं, पर यह भी सही है कि ममता-रोग से ग्रस्त व्यक्ति यथार्थ के तंग दायरे में घिरकर संकीर्ण, अनुदार और पक्षपाती हो जाता है। एक न्यायाधीश का किस्सा है, उसने जाने कितने अपराधियों को फांसी की सजा दी थी, किंतु एक दिन जब उसी का लड़का हत्या के अपराध में उसी अदालत में पेश किया गया, तो न्यायाधीश का स्वर बदल गया। वह दलील देने लगा- 'फांसी की सजा अमानवीय है। मनुष्य को ऐसी कठोर सजा देना शोभा नहीं देती। इससे अपराधी को सुधरने की आशा नष्ट हो जाती है। खून करने वाले ने भावना और आवेश में, जोश और उत्तेजना में खून कर डाला, परंतु उसकी आंखों पर से खून का जुनून उतर जाने पर उस व्यक्ति को संजीदगी के साथ फांसी के तख्ते पर चढ़ाकर मार डालना मानवता के लिए बड़ी लाा की बात है, बडा कलंक है, आदि-आदि।' यदि न्यायाधीश के सामने उसका अपना लड़का न होकर अन्य कोई होता, तो उसे बेहिचक उसे फांसी की सजा दे दी होती पर लड़के के प्रति उसका ममत्व उसके कर्तव्य-पालन में आड़े आ रहा था। इस ममत्व का कारण यह है कि हम संसार को 'वस्तुनिष्ठ' दृष्टिकोण से नहीं देख पाते। संसार को देखने के दो तरीके हैं- एक तो वह जिसे हम 'सब्जेक्टिव' यानी 'आत्मनिष्ठ' दृष्टिकोण कहते है और दूसरा 'ऑब्जेक्टिव' यानी 'वस्तुनिष्ठ' दृष्टिकोण कहलाता है। पदार्थ के अपने कुछ विशिष्ट गुण होते हैं, जो उस पदार्थ के संदर्भ में तो अपरिवर्तनशील है, पर व्यक्ति-भेद से उनके महत्व और उपादेयता में भिन्नता हुआ करती है। उदाहरणार्थ, हम सोने की एक डली लें। सोने की दृष्टि से सोने के जो गुण हैं, वे परिवर्तित नहीं होते, पर विभिन्न व्यक्ति उस डली को अलग-अलग दृष्टिकोण जिसे देखेंगे- कोई उसमें हार देखेगा, तो कोई कंगन। जिसे कर्णफूल बनाने की इच्छा होगी, वह उस डली में कर्णफूल देखेगा। इस प्रकार, सोने के साथ रागात्मक संबंध हटा दिए जाएं, तो व्यक्ति-निरपेक्ष दृष्टि से सोने को देखने में समर्थ होगा। उसे सोना-सोना ही दिखाई देगा। हम अपनी इस बात को थोडा और स्पष्ट करें।
हमारा सारा मोह तब शुरू होता है, जब परिस्थितियों को उनके वास्तविक स्वरूप में न देखकर हम उनके साथ अपना रागात्मक संबंध जोड़ लेते हैं। इससे व्यक्ति निरपेक्ष नहीं रह पाता और इसीलिए जीवन की सारी भूलें हुआ करती हैं। तब हमारा संतुलन उपर्युक्त न्यायाधीश के समान बिगड़ जाता है और जांच के हमारे सारे माप दण्ड ही बदल जाते हैं। ममत्व हमें संकीर्ण बना देता है। ममत्व का यह रोग हममें इतनी गहराई तक व्याप्त है कि इसने हमारे राष्ट्रीय चरित्र को ही दूषित कर दिया है। रोग की इस विभीषिका से त्राण पाने का बस यही उपाय है कि हम अपने दृष्टिकोण को अधिक 'वस्तुनिष्ठ' बनाने का प्रयास करें। वहीं हमें उदारचेता बनाएगा। तभी हम 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के भाव की ठीक-ठाक धारणा कर सकेंगे
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
-'संकुचित हृदयवालों की यही भावना होती है कि यह मेरा है और यह दूसरे का, पर उदार चरित्र वाले व्यक्तियों के लिए सारी वसुधा ही अपना कुटुम्ब बन जाती है।'
यह मनुष्य की ममता है, जो उसे छोटा बना देती है। कहा भी तो है- 'ममता बुरी बलाय'। यह सही है कि ममता के द्वारा माता-पिता अपनी सन्तानों के परिपालन की प्रेरणा पाते हैं, पर यह भी सही है कि ममता-रोग से ग्रस्त व्यक्ति यथार्थ के तंग दायरे में घिरकर संकीर्ण, अनुदार और पक्षपाती हो जाता है। एक न्यायाधीश का किस्सा है, उसने जाने कितने अपराधियों को फांसी की सजा दी थी, किंतु एक दिन जब उसी का लड़का हत्या के अपराध में उसी अदालत में पेश किया गया, तो न्यायाधीश का स्वर बदल गया। वह दलील देने लगा- 'फांसी की सजा अमानवीय है। मनुष्य को ऐसी कठोर सजा देना शोभा नहीं देती। इससे अपराधी को सुधरने की आशा नष्ट हो जाती है। खून करने वाले ने भावना और आवेश में, जोश और उत्तेजना में खून कर डाला, परंतु उसकी आंखों पर से खून का जुनून उतर जाने पर उस व्यक्ति को संजीदगी के साथ फांसी के तख्ते पर चढ़ाकर मार डालना मानवता के लिए बड़ी लाा की बात है, बडा कलंक है, आदि-आदि।' यदि न्यायाधीश के सामने उसका अपना लड़का न होकर अन्य कोई होता, तो उसे बेहिचक उसे फांसी की सजा दे दी होती पर लड़के के प्रति उसका ममत्व उसके कर्तव्य-पालन में आड़े आ रहा था। इस ममत्व का कारण यह है कि हम संसार को 'वस्तुनिष्ठ' दृष्टिकोण से नहीं देख पाते। संसार को देखने के दो तरीके हैं- एक तो वह जिसे हम 'सब्जेक्टिव' यानी 'आत्मनिष्ठ' दृष्टिकोण कहते है और दूसरा 'ऑब्जेक्टिव' यानी 'वस्तुनिष्ठ' दृष्टिकोण कहलाता है। पदार्थ के अपने कुछ विशिष्ट गुण होते हैं, जो उस पदार्थ के संदर्भ में तो अपरिवर्तनशील है, पर व्यक्ति-भेद से उनके महत्व और उपादेयता में भिन्नता हुआ करती है। उदाहरणार्थ, हम सोने की एक डली लें। सोने की दृष्टि से सोने के जो गुण हैं, वे परिवर्तित नहीं होते, पर विभिन्न व्यक्ति उस डली को अलग-अलग दृष्टिकोण जिसे देखेंगे- कोई उसमें हार देखेगा, तो कोई कंगन। जिसे कर्णफूल बनाने की इच्छा होगी, वह उस डली में कर्णफूल देखेगा। इस प्रकार, सोने के साथ रागात्मक संबंध हटा दिए जाएं, तो व्यक्ति-निरपेक्ष दृष्टि से सोने को देखने में समर्थ होगा। उसे सोना-सोना ही दिखाई देगा। हम अपनी इस बात को थोडा और स्पष्ट करें।
हमारा सारा मोह तब शुरू होता है, जब परिस्थितियों को उनके वास्तविक स्वरूप में न देखकर हम उनके साथ अपना रागात्मक संबंध जोड़ लेते हैं। इससे व्यक्ति निरपेक्ष नहीं रह पाता और इसीलिए जीवन की सारी भूलें हुआ करती हैं। तब हमारा संतुलन उपर्युक्त न्यायाधीश के समान बिगड़ जाता है और जांच के हमारे सारे माप दण्ड ही बदल जाते हैं। ममत्व हमें संकीर्ण बना देता है। ममत्व का यह रोग हममें इतनी गहराई तक व्याप्त है कि इसने हमारे राष्ट्रीय चरित्र को ही दूषित कर दिया है। रोग की इस विभीषिका से त्राण पाने का बस यही उपाय है कि हम अपने दृष्टिकोण को अधिक 'वस्तुनिष्ठ' बनाने का प्रयास करें। वहीं हमें उदारचेता बनाएगा। तभी हम 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के भाव की ठीक-ठाक धारणा कर सकेंगे
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