जेम्स अगस्टन हिक्की ने 29 जनवरी 1780 को जब पहला भारतीय समाचार पत्र बंगाल गजट निकाला तो इसका आदर्श वाक्य था - सभी के लिये खुला फिर भी किसी से प्रभावित नहीं. और इसके बाद से हमेशा ही समाचार पत्र को स्वतंत्रता से साथ जोड़कर देखा गया. प्रेस की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता. यह दौर बड़ा लंबा है. 29 जनवरी 1780 से लेकर 26 जनवरी 1950 को देश के गणतंत्र बनने तक. और फिर 26 जनवरी 1950 से 26 जनवरी 2011 तक हुए गणतंत्र के इस विस्तार तक. समाचार पत्रों के साथ हमेशा ही यह उम्मीद जुड़ी रही कि पत्र गणतंत्र में स्वतंत्रता के पर्याय बने रहें. गणतंत्र के इस विस्तार में काफी कुछ बदला. प्रेस अपने दायरे को बढ़ाता हआ मीडिया बना और प्रेस की स्वतंत्रता मीडिया की स्वतंत्रता हो गई. लेकिन इस विस्तार में जो दौर बदला, जो मानसकिता बदली और जो समाज बदला उससे मीडिया को किनारे रखा गया. जेम्स अगस्टन हिक्की ने तो अपना उद्देश्य ही घोषित किया था कि अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिये अपने शरीर को बंधन में डालने में मुझे मजा आता है. और यह उन्माद तब केवल एक पत्रकार के भीतर ही नहीं, हर उस भारतवासी के साथ जुड़ा था, जिसे देश की परतंत्रता सालती थी. आज भी मीडिया वही सब करता है. अगर आज पेड न्यूज का कलंक है, तो उस दौर में भी कुछ एक भारतीय समाचार पत्र ऐसे थे जो अंग्रेजी नीतियों के पोषक थे. क्या उसे बदले में कुछ पेड नहीं होता था? प्रेस क्लब की बैठकों से लेकर कई सेमिनारों में बार-बार यह सुनने को मिला कि समाज के पहरुए की उम्मीद सिर्फ मीडिया से ही क्यों की जाती है? और सारी स्वतंत्रता का ठेका सिर्फ हमें ही क्यों दे दिया जाता है? हाल ही में एक बड़े अखबार के संपादक ने एक साक्षात्कार में कहा कि मालिकों ने संपादक को गुलाम बना दिया है. इस टिप्पणी पर कई प्रतिक्रियाएं आयीं. और ऐसा है तो यह समझने की जरूरत है कि गणतंत्र में पत्रकार परतंत्र क्यों है.
जब भी अखबार के बारे में कुछ लिखा जाता है तो अकबर इलाहाबादी की इन पंक्तियों को जरूर याद किया जाता है कि जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो. और इस बात से किसी को इनकार भी नहीं है कि भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बंदूक और बम के साथ नहीं, समाचारपत्रों से शुरू हुआ. इसलिए उस दौर में पत्रकारिता कभी भी पेशा नहीं बनी. राजा राममोहन राय ने अखबारों की प्रासंगिकता के मद्देनजर कहा था कि पत्रों के प्रकाशन के पीछे मूल भावना यह है कि जनता के सामने ऐसी खबरें पेश की जाएं जो उनके अनुभव को बढ़ायें और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हों. साथ ही इसकी कोशिश यह भी होती है कि पत्रों के माध्यम से शासक प्रजा की वास्तविकता से वाकिफ हों. जनता उन जरियों से परिचित हो सके जिनके द्वारा दमनकारी नीतियों से सुरक्षा पायी जा सके और अपनी उचित मांगें पूरी की जा सकें. लेकिन तब पत्रकारिता इन दबावों से परे थी कि अखबारी कागज का दाम क्या है? और महीने के आखिर में मालिक को अपने कर्मचारियों को तनख्वाह भी बांटनी है. बंगाल गजट के आखिरी पन्ने पर लिखा रहता था कि अखबार का मूल्य इतना है लेकिन जो कोई मूल्य न दे पाए वह भी अखबार ले जाए क्योंकि पैसे से ज्यादा यह जरूरी है कि अखबार में लिखी बात लोगों तक पहुंचे. किसी अखबार का मालिक आज भी यही चाहता है कि अखबार लोगों तक पहुंचे, लेकिन उस अखबार के साथ यह सच भी जुड़ा है कि वह हजारों लोगों के ब्रेड और बटर का माध्मय भी है. यहीं पर पत्रकारिता मिशन से धंधे की ओर बढ़ जाती है, और यह ऐसा सच है कि इसे हम स्वीकारते भी हैं, लेकिन मिशन के प्रभाव और पत्रकारिता की गरिमा की आड़ में उस स्वीकार में हम सिर नहीं हिला पाते. इसी द्वैध के चलते आज यह बहस आम हो गई है कि संपादक मालिकों के हाथों की कठपुतली हो गए हैं. या पैसे को वरीयता देती पत्रकारिता अपनी गौरवमयी थाती से भटक गई है. यह दबाव हर जगह है. कुछ दिनों पहले योगेंद्र यादव और अनिल चमडि़या द्वारा किए गए संयुक्त अध्ययन में ऐसी कई बातें सामने आईं थीं जिनसे यह स्पष्ट हुआ था कार्यस्थल पर पत्रकारों में दबाव किसी और पेशे से कहीं बढ़कर है. यह दबाव ट्रेनी से लेकर संपादक तक है. हो सकता है कि दबाव के कारणों में फर्क हो. जिन्होंने यह चादर ओढ़ रखी है कि वे स्वच्छ निष्पक्ष खबरे देतें हैं उनके सामने दबाव है कि वो नंबर एक की दौड़ में बहुत पीछे हैं. और जो सनसनीखेज खबरे दिखाकर नंबर एक हैं उन्हें मलाल है कि लोग उनके काम को समझ नहीं पाते.
वास्तव में इतने वर्षों में बदला कुछ भी नहीं, सिर्फ वक्त का तकाजा बदला है. स्वतंत्रता आंदोलन में हर किसी ने हिस्सा लिया. वकील थे, जो आज भी हैं. उनसे उस दौर की किसी नैतिकता को नहीं जोड़ा जाता. बिजनेसमैन थे. आज भी हैं. वे भी इस दायरे से बाहर हैं. राजनेता थे उनकी स्वतंत्रता औऱ परतंत्रता को लेकर कोई बहस नहीं होती क्योंकि पेशा हो चली राजनीति को आज भी न तो पेशे के तौर पर देखा जाता है और लोकतांत्रिक मूल्यों के चलते खुलकर कल भी नहीं देखा जाएगा. इसकी एक वजह यह भी है कि राजनीति अभी तक स्कूली परंपरा से अलग है. इसलिए उसे पेशे से अलग माना जाता है. देखा जाए तो लोकतंत्र के तीनों ही स्तंभों की स्वंत्रतायुगीन बुनियाद आज के बरक्स कमजोर हुई है. लेकिन चौथे स्तंभ पर निगाहें इसलिए हर बार टिक जाती हैं क्योंकि आज भी यह उम्मीद बाकी है कि जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो.
जब भी अखबार के बारे में कुछ लिखा जाता है तो अकबर इलाहाबादी की इन पंक्तियों को जरूर याद किया जाता है कि जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो. और इस बात से किसी को इनकार भी नहीं है कि भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बंदूक और बम के साथ नहीं, समाचारपत्रों से शुरू हुआ. इसलिए उस दौर में पत्रकारिता कभी भी पेशा नहीं बनी. राजा राममोहन राय ने अखबारों की प्रासंगिकता के मद्देनजर कहा था कि पत्रों के प्रकाशन के पीछे मूल भावना यह है कि जनता के सामने ऐसी खबरें पेश की जाएं जो उनके अनुभव को बढ़ायें और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हों. साथ ही इसकी कोशिश यह भी होती है कि पत्रों के माध्यम से शासक प्रजा की वास्तविकता से वाकिफ हों. जनता उन जरियों से परिचित हो सके जिनके द्वारा दमनकारी नीतियों से सुरक्षा पायी जा सके और अपनी उचित मांगें पूरी की जा सकें. लेकिन तब पत्रकारिता इन दबावों से परे थी कि अखबारी कागज का दाम क्या है? और महीने के आखिर में मालिक को अपने कर्मचारियों को तनख्वाह भी बांटनी है. बंगाल गजट के आखिरी पन्ने पर लिखा रहता था कि अखबार का मूल्य इतना है लेकिन जो कोई मूल्य न दे पाए वह भी अखबार ले जाए क्योंकि पैसे से ज्यादा यह जरूरी है कि अखबार में लिखी बात लोगों तक पहुंचे. किसी अखबार का मालिक आज भी यही चाहता है कि अखबार लोगों तक पहुंचे, लेकिन उस अखबार के साथ यह सच भी जुड़ा है कि वह हजारों लोगों के ब्रेड और बटर का माध्मय भी है. यहीं पर पत्रकारिता मिशन से धंधे की ओर बढ़ जाती है, और यह ऐसा सच है कि इसे हम स्वीकारते भी हैं, लेकिन मिशन के प्रभाव और पत्रकारिता की गरिमा की आड़ में उस स्वीकार में हम सिर नहीं हिला पाते. इसी द्वैध के चलते आज यह बहस आम हो गई है कि संपादक मालिकों के हाथों की कठपुतली हो गए हैं. या पैसे को वरीयता देती पत्रकारिता अपनी गौरवमयी थाती से भटक गई है. यह दबाव हर जगह है. कुछ दिनों पहले योगेंद्र यादव और अनिल चमडि़या द्वारा किए गए संयुक्त अध्ययन में ऐसी कई बातें सामने आईं थीं जिनसे यह स्पष्ट हुआ था कार्यस्थल पर पत्रकारों में दबाव किसी और पेशे से कहीं बढ़कर है. यह दबाव ट्रेनी से लेकर संपादक तक है. हो सकता है कि दबाव के कारणों में फर्क हो. जिन्होंने यह चादर ओढ़ रखी है कि वे स्वच्छ निष्पक्ष खबरे देतें हैं उनके सामने दबाव है कि वो नंबर एक की दौड़ में बहुत पीछे हैं. और जो सनसनीखेज खबरे दिखाकर नंबर एक हैं उन्हें मलाल है कि लोग उनके काम को समझ नहीं पाते.
वास्तव में इतने वर्षों में बदला कुछ भी नहीं, सिर्फ वक्त का तकाजा बदला है. स्वतंत्रता आंदोलन में हर किसी ने हिस्सा लिया. वकील थे, जो आज भी हैं. उनसे उस दौर की किसी नैतिकता को नहीं जोड़ा जाता. बिजनेसमैन थे. आज भी हैं. वे भी इस दायरे से बाहर हैं. राजनेता थे उनकी स्वतंत्रता औऱ परतंत्रता को लेकर कोई बहस नहीं होती क्योंकि पेशा हो चली राजनीति को आज भी न तो पेशे के तौर पर देखा जाता है और लोकतांत्रिक मूल्यों के चलते खुलकर कल भी नहीं देखा जाएगा. इसकी एक वजह यह भी है कि राजनीति अभी तक स्कूली परंपरा से अलग है. इसलिए उसे पेशे से अलग माना जाता है. देखा जाए तो लोकतंत्र के तीनों ही स्तंभों की स्वंत्रतायुगीन बुनियाद आज के बरक्स कमजोर हुई है. लेकिन चौथे स्तंभ पर निगाहें इसलिए हर बार टिक जाती हैं क्योंकि आज भी यह उम्मीद बाकी है कि जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो.
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