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Thursday, 18 December 2014

सूफीवाद

सूफीवाद

पद सूफी, वली, दरवेश और फकीर का उपयोग मुस्लिम संतों के लिए किया जाता है, जिन्‍होंने अपनी पूर्वाभासी शक्तियों के विकास हेतु वैराग्‍य अपनाकर, सम्‍पूर्णता की ओर जाकर, त्‍याग और आत्‍म अस्‍वीकार के माध्‍यम से प्रयास किया। बारहवीं शताब्‍दी ए.डी. तक, सूफीवाद इस्‍लामी सामाजिक जीवन के एक सार्वभौमिक पक्ष का प्रतीक बन गया, क्‍योंकि यह पूरे इस्‍लामिक समुदाय में अपना प्रभाव विस्‍तारित कर चुका था।
सूफीवाद इस्‍लाम धर्म के अंदरुनी या गूढ़ पक्ष को या मुस्लिम धर्म के रहस्‍यमयी आयाम का प्रतिनिधित्‍व करता है। जबकि, सूफी संतों ने सभी धार्मिक और सामुदायिक भेदभावों से आगे बढ़कर विशाल पर मानवता के हित को प्रोत्‍साहन देने के लिए कार्य किया। सूफी सन्‍त दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग था जो अपनी धार्मिक विचारधारा के लिए उल्‍लेखनीय रहा। सूफियों ने ईश्‍वर को सर्वोच्‍च सुंदर माना है और ऐसा माना जाता है कि सभी को इसकी प्रशंसा करनी चाहिए, उसकी याद में खुशी महसूस करनी चाहिए और केवल उसी पर ध्‍यान केन्द्रित करना चाहिए। उन्‍होंने विश्‍वास किया कि ईश्‍वर ''माशूक'' और सूफी ''आशिक'' हैं।
सूफीवाद ने स्‍वयं को विभिन्‍न 'सिलसिलों' या क्रमों में बांटा। सर्वाधिक चार लोकप्रिय वर्ग हैं चिश्‍ती, सुहारावार्डिस, कादिरियाह और नक्‍शबंदी।
सूफीवाद ने शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में जडें जमा लीं और जन समूह पर गहरा सामाजिक, राजनैतिक और सांस्‍कृतिक प्रभाव डाला। इसने हर प्रकार के धार्मिक औपचारिक वाद, रुढिवादिता, आडंबर और पाखंड के विरुद्ध आवाज़ उठाई तथा एक ऐसे वैश्विक वर्ग के स़ृजन का प्रयास किया जहां आध्‍यात्मिक पवित्रता ही एकमात्र और अंतिम लक्ष्‍य है। एक ऐसे समय जब राजनैतिक शक्ति का संघर्ष पागलपन के रूप में प्रचलित था, सूफी संतों ने लोगों को नैतिक बाध्‍यता का पाठ पढ़ाया। संघर्ष और तनाव से टूटी दुनिया के लिए उन्‍होंने शांति और सौहार्द लाने का प्रयास किया। सूफीवाद का सबसे महत्‍वपूर्ण योगदान यह है कि उन्‍होंने अपनी प्रेम की भावना को विकसित कर हिन्‍दू - मुस्लिम पूर्वाग्रहों के भेद मिटाने में सहायता दी और इन दोनों धार्मिक समुदायों के बीच भाईचारे की भावना उपत्‍न्‍न की।

सूफीवाद

सूफीवाद इस बात की शिक्षा देता है कि हम अपने अंत:करण को कैसे पवित्र बनाएँ, अपना नैतिक धरातल कैसे दृढ़ करें तथा अपने आंतरिक एवं बाह्य जीवन का कैसे निर्माण करें कि शाश्वत आनंद की उपलब्धि हो सके। आत्मा की शुद्धि ही इसकी विषयवस्तु है, तथा इसकी परिणति एवं लक्ष्य है शाश्वत परमानंद और परम कृपा की प्राप्ति ('शेख उल्‌इस्लाम ज़करिया अंसारी') सूफी यह स्वीकार करते हैं कि ईश्वर द्वारा अपने बंदों पर आरोपित उनके पवित्र गंथ के सभी अधिनियम तथा पैगंबर द्वारा सुझाए गए (परंपरानुगत) सभी कर्तव्य ऐसे आवश्यक अनुबंध हैं जिनके बंधन में सभी वयस्कों एवं प्रौढ़ मस्तिष्कवालों का बँधना जरूरी है। इस अर्थ में सूफीवाद एक विशुद्ध इस्लामी अनुशासन है जो मुस्लिमों के आंतरिक जीवन तथा चरित्र का निर्माण ऐसे कर्तव्यों एवं अधिनियमों, अनुबंधों एवं अनिवार्यताओं के जरिए करता है जिन्हें कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह से नहीं छोड़ सकता। किंतु इस्लाम में सुफीवाद का यही समूचा अर्थ नहीं है। इसका एक रहस्यमय अभिप्राय है। दुनिया के रहस्यवादी अर्थ में सूफी वही है जिसे अपने तथा ईश्वर के बीच स्थित सच्चे संबंध की जानकारी है। इस प्रकार सूफी यह जानता है कि वह आंतरिक रूप से ईश्वर के मन में स्थित एक विचार है। विचार होने के कारण ईश्वर के साथ साथ वह भी सार्वकालिक है। बाह्य रूप से वह एक सृजित प्राणी है जिसके रूप में ईश्वर स्वयं सूफी की कार्यक्षमता (या 'शाक़िलत') के अनुसार अपने को प्रकट करता है। वह न तो अपना कोई स्वतंत्र निजी अस्तित्व रखता है और न कोई सत्तात्मक गुण ही (यथा जीवन, ज्ञान, शक्ति इत्यादि)। ईश्वर की सत्ता से उसकी सत्ता है, वह ईश्वर के ही द्वारा देखता है, ईश्वर के ही द्वारा सुनता है। इस अभिप्राय की पुष्टि कुरान के इस पाठ से होती है : 'वही प्रथम है और अंतिम है, वही बाह्य है और अभ्यंतर है और वह सब कुछ जानता है' (कु0 57/2)। इस आयत का विश्लेषण करते हुए पैगंबर ने कहा : 'तुम बाह्य हो और तुमसे ऊपर कुछ भी नहीं; तुम अभ्यंतर हो और तुमसे नीचे कुछ भी नहीं; तुम प्रथम हो और तुमसे पूर्व कुछ भी नहीं; तुम अंतिम हो और तुम्हारे बाद कुछ भी नहीं है।'
सूफीवाद के एक बहुत बड़े अधिकारी फारसी विद्वान जामी का कहनाहै कि रहस्यमय सूफी मत का प्रथम व्याख्याकार मिस्त्र निवासी धुन नून (मृत्यु 245-246 हिज़री) था। धुनश् नून के अभिज्ञान को बग़्दााद के जुनैद (मृत्यु 297) ने संकलित एंव व्यवस्थित किया। जुनैद के मत का द्दढ प्रचार उसके शिष्य, खुरासान के अबू बफ्रर शिबली (मृत्यु 335) ने किया। ये अभिज्ञान अबू नरत्र सर्राज (मृत्यु 378) द्वारा पुस्तक 'लुमा'(संपा0 आर0 ए0 निकोल्सन्‌) में लिपिबद्ध हुए, तदुपरांत अब्दुल कासिम अल क़ुशैरी ने (मृत्यु 437) इन्हें अपनी पुस्तक 'रसैल' में रखा। किंतु इस विचारप्रणाली को इस्लामी रहस्यविद्या में रखनेवाले तथा उन्हें नियमबद्ध करनेवाले व्यक्ति महान्‌ रहस्यवादी शेख मुहिउद्दीन इब्न्‌श् उल्‌ अरबी (560 हिजरी) थे। यह आप ही थे जिन्होंने छ: 'अलायतों' अथवा 'विशेषीकरणों' की योजना समझाई और ऐसे हर अभिव्यक्ति के संबद्ध विषयों का निश्चय किया। ये वज़ुद्दियह (जीव की इकाई) के नाम से प्रसिद्ध संप्रदाय के संस्थापक थे। इमाम गज़ाली (मृत्यु 450 हिजरी) ने सूफीवाद को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। उसके व्याप्त प्रभाव के चलते पुरातनपंथी सूफीवाद सुन्नी धर्मविज्ञान के साथ संलग्न हुआ और तबसे ही उसमें उसने अपना स्थान बनाया

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