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Thursday, 18 December 2014

लाओत्से

भगवान बुद्ध के समकालीन लाओत्से का जन्म चीन के त्च्यु प्रदेश में ईसा पूर्व 605 में माना जाता है। वह एक सरकारी पुस्तकालय में लगभग 4 दशक तक ग्रन्थपाल रहे। कार्यनिवृत्त होने पर वह लिंगपो पर्वतों पर ध्यान चिन्तन करने निकल गये।
जब 33 वर्षीय कन्फ्यूशियस ने आदरणीय लाओत्से से मुलाकात की थी तब वे 87 वर्ष के थे। कन्फ्यूशियस पर उनके दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा।
उन्हंे आखिरी बार उस समय देखा गया जब वे एक यात्रा के दौरान क्वानयिन दर्रे से बाहर निकल रहे थे। वहां से निकलते वक्त नाके पर खड़े टोलटैक्स अधिकारी या द्वारपाल ने उनसे टैक्स मांगा, धन के अर्थ से परे उस महापुरुष ने उस व्यक्ति को अपने 644 बोध वचनों से समृद्ध किया।

यह किस्सा कुछ वैसा ही जैसा श्री राम के नदी पार करने पर केवल द्वारा मांगा गया शुल्क, जिसके बदले में वे संसार को तारने वाले वचन कहें।

‘लाओत्से’ का अर्थ ‘बूढ़ा दार्शनिक’ होता है, इसके अतिरिक्त एक और अर्थ निकलता है ‘‘बूढ़ा बच्चा’’। उनके ही ये शब्द उनकी छवि गढ़ते हैं:
”जो मूर्तिमान धर्म बन गया, वह छोटे बच्चे जैसा होता है। बिच्छू उसे नहीं डसता, जंगली पशु उस पर नहीं झपटता और हिंस्र पक्षी उसे चोंच नहीं मारता।
उसमें शक्ति और उत्साह मानो उमड़ता रहता है। फिर भी उसे अपने स्त्रीत्व या पुरुषत्व का भान नहीं रहता।“

मुझे जानने वाले इने गिने ही हैं। मेरी कृतियों में श्रेष्ठ धर्म निहित है।
मेरे शब्दों को समझना और उन पर आचरण करना सरल है, फिर भी कोई उसे समझने या आचरण करने में समर्थ नहीं।
ताओ हद्य परिवर्तन का धर्म है। यह दिव्यता का अनुवर्तन है।
सारी दुनिया कुबूल करती है कि ताओ मार्ग श्रेष्ठ है लेकिन यह भी कहती है कि वह बेकार है।
जिस कारण वह बेकार मालूम पड़ता है, वही उसकी श्रेष्ठता है।

यह भी निश्चित नहीं कि यह अक्षरशः लाओत्से के ही शब्द हैं या उस द्वारपाल के अपने शब्दों में लाओत्से के वचनों का भाव अंकित है। बाद में इन वचनों को 81 प्रकरणों में बांटा और उनका नामकरण किया गया। इस ग्रंथ को “ताओ तेह” नाम दिया गया।

लाओत्से के बोधवचनों के वास्तविक भाष्यकार च्युंगत्सी हैं। च्युंगत्सी (सू) ने लाओत्से के वचनों को एक दर्शन के रूप में विश्व को दिया। ताओ मार्ग के अनुयायियों की संख्या बढ़ी और कालांतर में यह एक धर्म ग्रंथ ‘‘ताओ तेह किंग’’ के नाम से पुकारा जाने लगा।

ताओ का अर्थ वेदों के ओंकार के समान है।

लाओत्से के अनुसार -
मैं उसका नाम नहीं जानता, वह तत् है। ताओ में चाहे जो डालिये वह बढ़ेगा नहीं और जितना निकाल लें उसमें कुछ कमी नहीं होती।

यह अर्थ भी उपनिषद के श्लोक - पूर्णमिदं पूर्णमादाय पूणात्मुच्यते......... के समान है।

तेह का अर्थ सहज प्रकाश का प्रकट होने का मार्ग है। ताओ में जानबूझकर, सआयास कुछ करना पाप का मूल माना गया है। इसलिए लाओत्से ने इसे एक धर्म का नाम भी नहीं दिया गया।
लाओत्से पूछता है -
क्या फूल को अपने अंदर खुशबू भरनी या उसके लिए कोशिश करनी पड़ती है? वह सहज रूप में ही अपना जीवन बिताता है।
लोग कहते हैं कि वो सुगंध देता है लेकिन यह तो फूल का स्वभाव है, इसके लिए वह कर्ता नहीं।
लाओत्से कहते हैं यह ”गुण प्रकाश” का मार्ग है।
मनुष्य का सबसे बड़ा धन या साम्राज्य वासनाशून्य हो जाना है। इसके लिए श्रम की जरूरत ही कया है?
क्योंकि ‘कुछ करना चाहिए’ इस भावना को त्यागना है। कुछ होने की भावना से निवृत्ति ही सबसे बड़ा कर्म है।

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