भारतीय प्रेस परिषद का कार्य प्रेस तंत्र का स्तर व उसकी स्वतंत्रता को बनाये रखना है. इस अदभूत संस्थान की संकल्पना का आधार यह है कि लोकतांत्रिक समाज में, प्रेस को स्वतंत्र और उत्तरदायी होने की आवष्यकता है. स्वीडन पहला देश था जिसने समाचार पत्र उधोग की ही निधि से एक स्वैचिछक संस्था 'प्रेस परिषद की 1916 में स्थापना की.प्रथम प्रेस आयोग की सिफारिश पर भारतीय प्रेस अधिनियम, 1965 के अंतर्गत 1966 में प्रथम भारतीय प्रेस परिषद का गठन किया गया हलांकि, अधिनियम 1965 वर्ष 1975 में निरस्त हो गया और प्रेस परिषद समाप्त हो गई . कुछ हद तक 1965 के अधिनियम के अनुरूप 1978 में एक नया अधिनियम बनाया गया और इसके अंतर्गत 1979 में प्रेस की स्वतंत्रता के संरक्षण व भारत में समाचारपत्रों और समाचार एजेंसियो के स्तरों को बनाए रखने व उनमें सुधार करने के उददेष्यों की पूर्ति के लिए प्रेस परिषद का गठन किया गया.
परिषद एक स्वायतषासी अर्ध न्यायिक सांविधिक निकाय है. इसमें एक अध्यक्ष व 28 अन्य सदस्य होते हैं. परिपाटी के अनुसार, अध्यक्ष भारत सरकार के उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्व न्यायाधीश होते हैं, जिन्हें एक तीन सदस्यीय समिति द्वारा नामित किया जाता है. जिसमें राज्यसभा के सभापति, लोकसभा के अध्यक्ष व परिषद के 28 सदस्यों में से ही चुना गया एक व्यकित होता है. 28 सदस्यों में से 13 श्रमजीवी पत्रकारों का पतिनिधित्व करते हैं, इसमें छह समाचारपत्रों के संपादक व षेष सात संपादकों के अलावा श्रमजीवी पत्रकार होते हैं, जो समाचारपत्रों की व्यवस्था का कार्य कर रहे हों अथवा उनका अपना समाचारपत्र हो. एक प्रतिनिधि ऐसे व्यकितयों में होता है, जो समाचार एजेंसियों की व्यवस्था करता है. तीन सदस्य, ऐसे जिन्हें षिक्षा, विज्ञान, विधि व साहित्य तथा संस्कृति के बारे में विषेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव हो. इनमें से एक विष्वविधालय अनुदान आयोग, एक भारतीय विधिज्ञ परिषद व एक साहित्य अकादमी द्वारा नामित होता है. पांच संसद-सदस्य होते हैं - इनमें से तीन लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा व राज्यसभा के सभापति द्वारा नाामित होते हैं. सदस्यों व अध्यक्ष के कार्यकाल की अवधि तीन वर्ष की होती है.
भारतीय प्रेस परिषद का अत्यधिक स्वस्थ्य पहलु इसके अध्यक्ष व इसके अन्य सदस्यों के नामांकन की प्रकि्रया व योजना है. एक सांविधिक संस्था होने के बावजूद, इसमें सरकार व इसके प्राधिकारी अथवा अन्य एजेंसी के प्रभाव अथवा हस्तक्षेप का कोर्इ स्थान नहीं है. अधिनियम 1978 की धारा 13 में सनिनविष्ट भारतीय प्रेस परिषद के उददेष्यों हैं 'प्रेस की स्वतंत्रता का संरक्षण व भारत में समाचारपत्रों और समाचार एजेंसियों के स्तरों को बनाये रखना और उनमें सुधार करना. अधिनियम में परिषद को सलाहकार की भूमिका अदा करने का भी प्रावधान है.
उसमें यह मूल कार्यवाही कर सकती है अथवा अधिनियम की धारा 13(2) के अंतर्गत सरकार द्वारा भेजे गये पत्र पर अध्ययन करने के बाद प्रेस परिषद किसी बिल, विधान, कानून अथवा संबद्ध व्यकितयों को सप्रेषित कर सकती है. जन महत्व के मामले में सांविधिक दायित्वों के निर्वाह में परिषद मूल कार्यवाही करने के साथ घटना स्थल पर जांच के लिए विषेष जांच समिति भेज सकती है.
यधपि प्रेस परिषद एक न्यायालय नहीं है, इसके पास अपना कार्य करने अथवा जांच करने के लिए वही अधिकार है जो कि सिविल न्यायालय को है. अधिनियम की धारा 15 जांच के समय परिषद को कुछ अधिकार देती है. जोकि सिविल प्रकि्रया संहिता के अंतर्गत मुकदमें पर कार्यवाही करते समय न्यायालय को होते हैं. हालांकि, किसी भी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, संपादक अथवा पत्रिका को परिषद विवष नही कर सकती कि वह उसके द्वारा प्रकाषित किसी समाचार अथवा सूचना के स्त्रोत को दर्षाये.
इसके अतिरिक्त, धारा 15(3) में प्रावधान है कि अधिनियम के अंतर्गत परिषद की प्रत्येक जांच, भारतीय दंड संहिता की धारा 193 व 228 के अंतर्गत ' न्यायिक कार्यवाही समझी जानी चाहिए. इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोर्इ व्यकित परिषद के सम्मुख झूठी गवाही देता है तब दंड संहिता की धारा 193 के अंतर्गत उन पर मिथ्या साक्ष्य के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है और यदि कोर्इ व्यकित प्रेस परिषद अथवा इसकी जांच समितियों की कार्यवाही में बाधा डालता है अथवा उनका अपमान करता है, तब उस पर दंड संहिता की धारा 228 के अंतर्गत परिषद की मानहानि के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है.
धारा (14) के अधीन जहां परिषद को उसके किए गये परिवाद के प्राप्त होने पर या अन्यथा, यह विष्वास करने का कारण हो कि किसी समाचारपत्र या समाचार एजेंसी ने पत्रकारिता के सदाचार या लोक-रूचि के स्तर का अतिवर्तन किया है या किसी संपादक या श्रमजीवी पत्रकार ने कोर्इ वृतितक आचरण किया है, वहां परिषद संबद्ध समाचारपत्र या समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार को सुनावार्इ का अवसर देने के बाद उस रीति से जांच कर सकती है या जा इस अधिनियम के अधीन बनाए गये विनियमों द्वारा उपबंधित हैं और यदि वह आवष्यक पाती है तो वह ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किये जायेंगे, यथा -स्थिति उस समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकती है उसकी भत्र्सना कर सकती है या उसकी परिनिंदा कर सकती है या उस संपादक या पत्रकार के आचरण का अननुमोदन कर सकती है. लेकिन यदि अध्यक्ष की राय में जांच करने के लिए कोर्इ पर्याप्त आधार नहीं है तो परिषद किसी परिवाद का संज्ञान नहीं करती.परिषद लोकहित में किसी भी समाचारपत्र को निर्देष दे सकती है कि समाचार या समाचार एजेंसी, संपादक या उसमें कार्य करने वाले पत्रकार के विरूद्ध उस धारा के अधीन किसी जांच से संबंधित किन्हीं विषिष्टयों , जिनके अंतर्गत उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार का नाम भी है उसका निर्णय अथवा अन्य इंगित सामग्री प्रकाशित करे. लेकिन परिषद के न्यायालय में लंबित किसी वाद पर विचार करने का अधिकार नहीं है और न ही वह बिना पत्रकार के सूचना के स्त्रोत बताने को बाध्य कर सकती है. इस धारा के अधीन परिषद का निष्यच अंतिम है और उसे किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है.
प्राय: यह देखा गया है कि जब-जब पत्रकारों पर किसी प्रकार का संकट मंडराया है तब-तब परिषद खुल कर सामने आयी है और उसने अपने ढंग से उसकी जांच कर अपनी रिर्पोट सार्वजनिक की है.प्रेस परिषद का स्पष्ट मत है कि हर कीमत पर पत्रकारिता की स्वतंत्रता बनी रहनी चाहिए और उसमें किसी भी प्रकार का सरकार का या किसी अन्य का दखल नहीं होना चाहिए. लेकिन इसके साथ ही परिषद का यह भी मत है कि पत्रकाकरों को पूरे तौर से पीत पत्रकारिता का दमन करना चाहिए और समाचारपत्रों में जो कुछ भी प्रकाषित हो भली-भांति पूर्व जांच के उपरांत हो.इस हेतु परिषद को पूर्व निर्णयों के अधार पर आचार संहिता तैयार की है जो कि पत्रकारों, अधिकारियों व जनता के लिए संदर्भ ग्रंथ के रूप में उपलब्ध है. परिषद ने अपने पिछले 33 वर्षों के क्रियाकलापों से सिद्ध कर दिया है कि प्रेस की सुरक्षा बनाये रखने के लिए स्वनियामक तंत्र ही सर्वोचित तंत्र है. प्रेस से पीडि़त व्यकित हो या किसी पत्रकार को किसी ने प्रताड़ना किया हो दोनों ही भारतीय प्रेस परिषद में अपना परिवाद ला सकते हैं. प्रेस की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए प्रेस परिषद ठोस कार्रवार्इ करने से नहीं हिकचकता है. तो वहीं दूसरी ओर प्रेस के खिलाफ कड़े फैसले भी लेता है.
परिषद एक स्वायतषासी अर्ध न्यायिक सांविधिक निकाय है. इसमें एक अध्यक्ष व 28 अन्य सदस्य होते हैं. परिपाटी के अनुसार, अध्यक्ष भारत सरकार के उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्व न्यायाधीश होते हैं, जिन्हें एक तीन सदस्यीय समिति द्वारा नामित किया जाता है. जिसमें राज्यसभा के सभापति, लोकसभा के अध्यक्ष व परिषद के 28 सदस्यों में से ही चुना गया एक व्यकित होता है. 28 सदस्यों में से 13 श्रमजीवी पत्रकारों का पतिनिधित्व करते हैं, इसमें छह समाचारपत्रों के संपादक व षेष सात संपादकों के अलावा श्रमजीवी पत्रकार होते हैं, जो समाचारपत्रों की व्यवस्था का कार्य कर रहे हों अथवा उनका अपना समाचारपत्र हो. एक प्रतिनिधि ऐसे व्यकितयों में होता है, जो समाचार एजेंसियों की व्यवस्था करता है. तीन सदस्य, ऐसे जिन्हें षिक्षा, विज्ञान, विधि व साहित्य तथा संस्कृति के बारे में विषेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव हो. इनमें से एक विष्वविधालय अनुदान आयोग, एक भारतीय विधिज्ञ परिषद व एक साहित्य अकादमी द्वारा नामित होता है. पांच संसद-सदस्य होते हैं - इनमें से तीन लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा व राज्यसभा के सभापति द्वारा नाामित होते हैं. सदस्यों व अध्यक्ष के कार्यकाल की अवधि तीन वर्ष की होती है.
भारतीय प्रेस परिषद का अत्यधिक स्वस्थ्य पहलु इसके अध्यक्ष व इसके अन्य सदस्यों के नामांकन की प्रकि्रया व योजना है. एक सांविधिक संस्था होने के बावजूद, इसमें सरकार व इसके प्राधिकारी अथवा अन्य एजेंसी के प्रभाव अथवा हस्तक्षेप का कोर्इ स्थान नहीं है. अधिनियम 1978 की धारा 13 में सनिनविष्ट भारतीय प्रेस परिषद के उददेष्यों हैं 'प्रेस की स्वतंत्रता का संरक्षण व भारत में समाचारपत्रों और समाचार एजेंसियों के स्तरों को बनाये रखना और उनमें सुधार करना. अधिनियम में परिषद को सलाहकार की भूमिका अदा करने का भी प्रावधान है.
उसमें यह मूल कार्यवाही कर सकती है अथवा अधिनियम की धारा 13(2) के अंतर्गत सरकार द्वारा भेजे गये पत्र पर अध्ययन करने के बाद प्रेस परिषद किसी बिल, विधान, कानून अथवा संबद्ध व्यकितयों को सप्रेषित कर सकती है. जन महत्व के मामले में सांविधिक दायित्वों के निर्वाह में परिषद मूल कार्यवाही करने के साथ घटना स्थल पर जांच के लिए विषेष जांच समिति भेज सकती है.
यधपि प्रेस परिषद एक न्यायालय नहीं है, इसके पास अपना कार्य करने अथवा जांच करने के लिए वही अधिकार है जो कि सिविल न्यायालय को है. अधिनियम की धारा 15 जांच के समय परिषद को कुछ अधिकार देती है. जोकि सिविल प्रकि्रया संहिता के अंतर्गत मुकदमें पर कार्यवाही करते समय न्यायालय को होते हैं. हालांकि, किसी भी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, संपादक अथवा पत्रिका को परिषद विवष नही कर सकती कि वह उसके द्वारा प्रकाषित किसी समाचार अथवा सूचना के स्त्रोत को दर्षाये.
इसके अतिरिक्त, धारा 15(3) में प्रावधान है कि अधिनियम के अंतर्गत परिषद की प्रत्येक जांच, भारतीय दंड संहिता की धारा 193 व 228 के अंतर्गत ' न्यायिक कार्यवाही समझी जानी चाहिए. इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोर्इ व्यकित परिषद के सम्मुख झूठी गवाही देता है तब दंड संहिता की धारा 193 के अंतर्गत उन पर मिथ्या साक्ष्य के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है और यदि कोर्इ व्यकित प्रेस परिषद अथवा इसकी जांच समितियों की कार्यवाही में बाधा डालता है अथवा उनका अपमान करता है, तब उस पर दंड संहिता की धारा 228 के अंतर्गत परिषद की मानहानि के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है.
धारा (14) के अधीन जहां परिषद को उसके किए गये परिवाद के प्राप्त होने पर या अन्यथा, यह विष्वास करने का कारण हो कि किसी समाचारपत्र या समाचार एजेंसी ने पत्रकारिता के सदाचार या लोक-रूचि के स्तर का अतिवर्तन किया है या किसी संपादक या श्रमजीवी पत्रकार ने कोर्इ वृतितक आचरण किया है, वहां परिषद संबद्ध समाचारपत्र या समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार को सुनावार्इ का अवसर देने के बाद उस रीति से जांच कर सकती है या जा इस अधिनियम के अधीन बनाए गये विनियमों द्वारा उपबंधित हैं और यदि वह आवष्यक पाती है तो वह ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किये जायेंगे, यथा -स्थिति उस समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकती है उसकी भत्र्सना कर सकती है या उसकी परिनिंदा कर सकती है या उस संपादक या पत्रकार के आचरण का अननुमोदन कर सकती है. लेकिन यदि अध्यक्ष की राय में जांच करने के लिए कोर्इ पर्याप्त आधार नहीं है तो परिषद किसी परिवाद का संज्ञान नहीं करती.परिषद लोकहित में किसी भी समाचारपत्र को निर्देष दे सकती है कि समाचार या समाचार एजेंसी, संपादक या उसमें कार्य करने वाले पत्रकार के विरूद्ध उस धारा के अधीन किसी जांच से संबंधित किन्हीं विषिष्टयों , जिनके अंतर्गत उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार का नाम भी है उसका निर्णय अथवा अन्य इंगित सामग्री प्रकाशित करे. लेकिन परिषद के न्यायालय में लंबित किसी वाद पर विचार करने का अधिकार नहीं है और न ही वह बिना पत्रकार के सूचना के स्त्रोत बताने को बाध्य कर सकती है. इस धारा के अधीन परिषद का निष्यच अंतिम है और उसे किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है.
प्राय: यह देखा गया है कि जब-जब पत्रकारों पर किसी प्रकार का संकट मंडराया है तब-तब परिषद खुल कर सामने आयी है और उसने अपने ढंग से उसकी जांच कर अपनी रिर्पोट सार्वजनिक की है.प्रेस परिषद का स्पष्ट मत है कि हर कीमत पर पत्रकारिता की स्वतंत्रता बनी रहनी चाहिए और उसमें किसी भी प्रकार का सरकार का या किसी अन्य का दखल नहीं होना चाहिए. लेकिन इसके साथ ही परिषद का यह भी मत है कि पत्रकाकरों को पूरे तौर से पीत पत्रकारिता का दमन करना चाहिए और समाचारपत्रों में जो कुछ भी प्रकाषित हो भली-भांति पूर्व जांच के उपरांत हो.इस हेतु परिषद को पूर्व निर्णयों के अधार पर आचार संहिता तैयार की है जो कि पत्रकारों, अधिकारियों व जनता के लिए संदर्भ ग्रंथ के रूप में उपलब्ध है. परिषद ने अपने पिछले 33 वर्षों के क्रियाकलापों से सिद्ध कर दिया है कि प्रेस की सुरक्षा बनाये रखने के लिए स्वनियामक तंत्र ही सर्वोचित तंत्र है. प्रेस से पीडि़त व्यकित हो या किसी पत्रकार को किसी ने प्रताड़ना किया हो दोनों ही भारतीय प्रेस परिषद में अपना परिवाद ला सकते हैं. प्रेस की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए प्रेस परिषद ठोस कार्रवार्इ करने से नहीं हिकचकता है. तो वहीं दूसरी ओर प्रेस के खिलाफ कड़े फैसले भी लेता है.
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